बिहार चुनाव की बात हो और उसमें जातीय गणित की राजनीति न हो… ये असंभव है। इस बार भी सभी दल अपने जातीय स्तंभों को मजबूत करने पर काम कर रहे हैं। बीजेपी ने भी इसी के चलते जेडीयू के अलावा कई क्षेत्रीय दलों से गठबंधन किया है। ऐसा ही एक गठबंधन मुकेश साहनी की विकासशील इंसा पार्टी के साथ किया गया है और इसे 11 सीटें भी दी हैं जिसको लेकर ये सवाल भी खड़े हो गए हैं कि बीजेपी ने ये एक गलत दांव चल दिया है लेकिन शायद किसी को अंदाजा नहीं है कि बीजेपी किस तरह से इन चुनावों में जेडीयू से इतर एक गठबंधन बना चुकी है जो कि उसके लिए एक फायदे का सौदा हो सकता है।
दरअसल, बीजेपी ने इन चुनावों में अपने कोटे की सीटों से मुकेश सहानी की पार्टी विकासशील इंसा पार्टी के साथ गठबंधन किया है और उसे करीब 11 सीटें दी हैं। जेडीयू ने भी मांझी की पार्टी के साथ गठबंधन किया है जिसके चलते बीजेपी के पास 110 और जेडीयू के पास 115 सीटें बची हैं। इस मामले में लोग बीजेपी की रणनीति को हल्के में ले रहे हैं और इस गठबंधन के लिए बीजेपी का मजाक उड़ा रहे हैं कि एक छोटी पार्टी को इतनी सीटें देकर बीजेपी ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।
बीजेपी के इस कदम को लोग चाहे जितना ज्यादा मजाक में ले रहे हों लेकिन असलियत ये है कि इस पूरे खेल में जातिगत रणनीति है और उसके चलते ही बीजेपी ने ये गठबंधन किया है। दरअसल, बिहार में बॉलीवुड से राजनीति में आए मुकेश साहनी का कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है। वो मल्लाह की जाति से आते हैं औऱ उनके पास एक अच्छा-खासा 6-7 प्रतिशत का वोट बैंक है।
बिहार पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति का एक बड़ा राज्य माना जाता है जिसके चलते इनके वोट बैंक का राजनीतिक दल खूब ध्यान रखते हैं। इसलिए इस नई पार्टी के जरिए बीजेपी अपनी पकड़ उन पिछड़े वोटरों पर भी बनाना चाहती है जो कि चुनाव की दृष्टि से बीजेपी के लिए निर्णायक हो सकते हैं। जेपी आंदोलन के दौरान भी निषादों को लुभाने के लिए इस तरह के गठबंधन किए गए थे। बीजेपी भी इन मल्लाहों पर अपनी पकड़ बनाने के लिए इन छोटी पार्टियों को मजबूत कर रही है।
इन सबसे इतर नीतीश कुमार मुस्लिम वोटरों को साधने की कोशिश कर रहे हैं जिसके चलते लगातार उन्हें नुकसान हो रहा है। बीजेपी के साथ जाने पर उन्हें पहले भी मुस्लिम धड़ा ज्यादा पसंद नहीं करता था लेकिन 2015 के चुनावों में बीजेपी विरोधी महागठबंधन के चलते उन्हें मुस्लिमों का अच्छा खासा वोट मिला था, पर इसका मतलब ये नहीं कि वो वोट जेडीयू को मिला था, असले में वो वोट कांग्रेस और आरजेडी का था जो गठबंधन के कारण नीतीश को गया।
नीतीश ने उस चुनाव के बाद ये धारणा बना ली कि इस बार भी उन्हें मुस्लिम का वोट मिलेगा और इसीलिए वो इन चुनावों में भी मुस्लिमों पर निशाना साध रहे हैं। नीतीश के इस रवैए में एक बात ये भी है कि वो अपने कोर वोटरों (कोइरी, कुर्मी समेत सभी तरह की अति पिछड़ी जातियां) को भी ज्यादा तवज्जों नहीं दे रहे है। ऐसे में इसका सीधा फायदा मुकेश साहनी की पार्टी को जा सकता है जो कि मोदी के नाम पर चुनाव प्रचार करेंगी, और ये नीतीश के लिए एक तगड़ा झटका होगा।
जानकार तो यहां तक मानते है कि नीतीश मुस्लिम वोटरों के चक्कर में अपने दलित वोटरों भी खो सकते हैं जिससे राज्य की राजनीति में उन्हें परेशानियां होंगी। दूसरी ओर बीजेपी इसका सीधे-सीधे लाभ उठाएगी।
चिराग के कारण पहले ही जेडीयू को नुकसान हो रहा है। ऐसे में नीतीश का अपने कोर वोटरों पर ध्यान न देना ये भी दिखाता है कि नीतीश अपने कोर वोटरों को लेकर आश्वसत हैं कि उनका वोट हमें मिलेगा ही, औऱ ये उनके लिए एक झटका हो सकता है। चिराग भी अपने स्तर पर जाति कार्ड खेल कर रहे हैं। इस पूरे चक्रव्यूह में नीतीश को सबसे ज्यादा नुकसान हो सकता है। वहीं बिहार की इस जातीय रणनीति में नंबर एक खिलाड़ी केवल बीजेपी ही निकल कर आ रही है जो जनसमर्थन के लिए हर मोर्चे पर सक्रिय है और उसका फायदा उसे आने वाले समय में दिखाई भी देगा औऱ नीतीश उस वक्त केवल हाथ मलते रह जाएंगे।