US के आने से श्रीलंका की चीन और भारत के बीच लगातार पलटी मारने वाली कला होगी समाप्त

श्रीलंका को इस बार किसी एक पक्ष को चुनना ही होगा

श्रीलंका

श्रीलंका के प्रभावशाली राजपक्षे परिवार और चीनी सरकार के बीच संबंध शुरू से ही अच्छे रहे हैं। वर्ष 2015 के राष्ट्रपति चुनावों में जब मैत्रीपाल सिरिसेना के हाथों महिंदा राजपक्षा की हार हुई थी, तो राजपक्षे परिवार ने भारत पर उन्हें हराने की साजिश रचने का आरोप लगाया था। इसके बाद जब वर्ष 2019 में राजपक्षे परिवार दोबारा सत्ता में आया, तो श्रीलंका ने चीन और भारत के बीच संतुलन बनाकर चलने की कोशिश की है। हालांकि, दुनियाभर में जारी Quad vs चीन के तनाव के बीच अब श्रीलंका के लिए दोनों पक्षों के साथ मधुर संबंध रख पाना मुश्किल हो सकता है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो जल्द ही श्रीलंका की यात्रा पर जाने वाले हैं और ऐसे में अमेरिका की ओर से यह साफ कर दिया गया है कि अब श्रीलंका को अपना पक्ष साफ़ करना ही होगा- या तो वे Quad के साथ हैं या फिर चीन के साथ!

देश में LTTE के खात्मे के बाद राजपक्षे बंधुओं पर जमकर मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के आरोप लगे थे, जिसके बाद पश्चिमी देशों की ओर से इस दक्षिण एशियाई देश को नकार दिया गया था। ऐसे में चीन को यहाँ अपनी पैठ बढ़ाने का मौका मिल गया। सीरिसेना सरकार के समय चीन ने जमकर इस देश को लोन दिया और अपने कर्ज़ जाल में फंसा लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि वर्ष 2019 में श्रीलंका को अपना हंबनटोटा पोर्ट 99 वर्षों के लिए चीन को लीज़ पर देना पड़ा। इसके बाद श्रीलंका को भी यह अहसास हुआ कि चीन के साथ दोस्ती की उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसके बाद अब श्रीलंका भारत और चीन के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है।

उदाहरण के लिए अगस्त महीने में ही श्रीलंका के विदेश सचिव की ओर से यह बयान देखने को मिला था कि श्रीलंका की प्राथमिकताओं में हमेशा भारत ही टॉप पर रहेगा। श्रीलंका के विदेश सचिव जयनाथ कोलंबगे ने कहा था, “राष्ट्रपति (गोटाबाया राजपक्षे) ने स्पष्ट कहा है कि, विदेश नीति के परिप्रेक्ष्य में हमारी नीति में भारत सबसे पहले होगा। हम रणनीतिक तौर पर भारत के शत्रु नहीं बन सकते और न ही हमें ऐसा होना चाहिए। हमें भारत से लाभान्वित होना चाहिए। हालांकि, पिछले दिनों में ही श्रीलंका से कुछ ऐसी खबरें देखने को मिली है जिससे स्पष्ट होता है कि वह अब भी चीन के साये से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाया है।

उदाहरण के लिए अक्टूबर महीने में ही श्रीलंका ने चीन से 500 मिलियन डॉलर की सहायता मांगने का फैसला लिया है और अगर चीन इसके लिए राज़ी हो जाता है तो केवल इसी वर्ष चीन द्वारा श्रीलंका को दिये जाने वाले लोन का आंकड़ा 1 बिलियन डॉलर तक पहुँच जाएगा! इतना ही नहीं, हाल ही में जब प्रधानमंत्री कार्यालय में चीफ़ ऑफ स्टाफ़ के पद पर प्रधानमंत्री महिंदा राजापक्षा के बेटे को नियुक्त किया गया था, तो इसकी खबर भी सबसे पहले श्रीलंका में मौजूद चीनी दूतावास की ओर से ही जारी की गयी। खुद श्रीलंका की मीडिया हैरान रह गयी कि आखिर यह खबर सबसे पहले चीनी सरकार के पास कैसे पहुंची! इससे शक और बढ़ जाता है कि क्या श्रीलंकाई सरकार वाकई भारत और श्रीलंका के रिश्तों को लेकर प्रतिबद्ध है?

हालांकि, अब जब श्रीलंका पर अमेरिका की नज़र पड़ी है, तो अब हालातों में बदलाव आना तय है। अमेरिकी विदेश मंत्री राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले भारत, श्रीलंका और मालदीव का दौरा करने वाले हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अमेरिका की ओर से श्रीलंका को “मुश्किल चुनाव” करने को कहा जाएगा! मुश्किल चुनाव का यहाँ एक अर्थ यह भी हो सकता है- या तो आप चीन के साथ हैं, या फिर हमारे साथ। माइक पोम्पियो के श्रीलंकाई दौरे से ठीक पहले स्टेट डिपार्टमेन्ट के वरिष्ठ अधिकारी Dean Thompson ने कहा “हम श्रीलंका से भेदभाव और अपारदर्शी नीतियों की बजाय ज़्यादा पारदर्शिता की उम्मीद रखते हैं। हम चाहते हैं कि श्रीलंका कुछ मुश्किल लेकिन ज़रूरी फैसले लेकर इसे सुनिश्चित करे।”

श्रीलंका को अब चीन मुक्त करने के लिए भारत और अमेरिका एक साथ आ गए हैं। भारत जहां इस देश में चीन के प्रभाव को चुनौती देने का काम कर रहा है, तो वहीं अमेरिका अब इस देश से चीनी प्रभाव को खत्म करने की ओर आगे बढ़ रहा है। यह अवश्य ही दक्षिण एशिया और हिन्द सागर क्षेत्र में भारत की पकड़ को और ज़्यादा मजबूत करेगा!

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