बिहार की राजनीति में जातिगत रणनीति का खेल बहुत गहरा रहा है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में गठबंधनों की एक बाढ़-सी आ गई है औऱ ज्यादातर राजनीतिक दल वोट कटवा बनकर इस चुनावी रण में उतर रहे हैं। बीजेपी-जेडीयू, आरजेडी कांग्रेस औऱ वामदल के महागठबंधन के अलावा औवेसी, देवेन्द्र यादव,उपेंद्र कुशवाहा और बसपा का संयुक्त जनतांत्रिक सेकुलर गठबंधन भी अपना प्रभाव दिखा सकता है। गठबंधनों का ये गणित इस बार साफ दिखा रहा है कि ये सभी एक दूसरे का जमकर वोट काटेंगे जिसमें बीजेपी को सबसे ज्यादा फायदा होने की संभावनाएं दिख रहीं हैं। वहीं इस रण में आरजेडी से लेकर जेडीयू तक की मुश्किलें हद से ज्यादा बढ़ने वाली हैं।
बिहार चुनावों में जातीय समीकरण साधने के लिए सबसे मशहूर लालू यादव की पार्टी आरजेडी मानी जाती है। बिहार में करीब 28 फीसदी यादव औऱ मुस्लिम वोटर हैं। आरजेडी को लेकर ये कहा जाता है कि उसने बिहार की राजनीति में एम-वाई मुस्लिम-दलित समीकरण को बड़े अच्छे से साध रखा है। 1990 से लेकर 2005 और 2015 तक जब-जब लालू की सरकार बनी है तब-तब एमवाई फैक्टर सबसे असरदार साबित हुआ है, इसके अलावा राज्य के करीब 20 फीसदी दलितों का भी लालू की राजनीति में बहुत योगदान रहा है।
इन चुनावों में लालू के एम-वाई समीकरण पर चोट की संभावनाएं हैं जिसके कई कारण हैं ,पहला कारण तो पप्पू यादव का जन अधिकार मोर्चा है। पप्पू की कोसी क्षेत्र के यादव और अन्य ओबीसी वोटरों पर अच्छी पकड़ बन चुकी है जो यादव वोटों को तितर-बितर करने में बड़ी भूमिका निभाएगा। यही नहीं, ओवैसी की पार्टी AIMIM का बसपा और आरएलएसपी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री देवेंद्र यादव के साथ गठबंधन आरजेडी के कोर मुस्लिम वोटरों को अपनी तरफ लाने के साथ ही दलित वोटों को भी कैप्चर कर सकता है , इसके साथ ही सीमांचल के यादव वोटों पर भी देवेंद्र यादव की अच्छी पकड़ होने के कारण यहाँ भी लालू के यादव वोट बैंक में अच्छी सेंधमारी हो सकती है। जिसके चलते इस बार लालू के एमवाई फैक्टर के अलावा उनके एक बड़े दलित वोट बैंक पर भी चोट लग सकती है। लालू के ये कटे हुए वोट नतीजे को अधिक प्रभावित कर सकते हैं।
इसके अलावा राम कृपाल यादव समेत बीजेपी के पास कई बड़े पिछड़ी जाति के नेता हैं जो आरजेडी के वोट काटने में अहम हो सकते हैं। इससे न केवल बीजेपी के वोटों में बढ़ोतरी होगी बल्कि उसका दायरा भी इन पिछड़ी जातियों की ओर बढ़ेगा।
जीतनराम मांझी जैसे दलित नेता भी महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में शामिल हो चुके हैं तो इस चुनाव में दलित वोटों का बिखराव एनडीए और सीमांचल में बसपा गठबंधन के पक्ष में होने के आसार हैं जो की महागठबंधन के परंपरागत वोट बैंक के लिए एक झटका माना जा सकता है।
एलजेपी ने इस बार बगावती रुख अख्तियार करते हुए एनडीए से किनारा कर लिया है उसका सारा विरोध केवल औऱ केवल जेडीयू और नीतीश से है। एलजेपी नेता चिराग पासवान लगातार नीतीश के विरोध में बयान दे रहे हैं। इसलिए वो इस बार उन सभी सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार है जिसमें जेडीयू सामने होगी और बीजेपी के उम्मीदवीरों का अन्य सभी सीटों पर समर्थन करेगी।
इसको लेकर अब एक नया मामला ये भी है कि एलजेपी को पीछे के दरवाजे से बीजेपी ने अपने वो उम्मीदवार दे दिए हैं जो राजनीतिक रूप से बेहद ताकतवर हैं। इस कारण ये सभावनाएं भी बन रहीं है कि जेडीय़ू के सामने बीजेपी समर्थक एलजेपी को समर्थन देंगे जिससे नुकसान केवल और केवल जेडीयू और नीतीश कुमार का होगा और एलजेपी बिहार की राजनीति एक बड़े गेम चेंजर की भूमिका में सामने आएगी।
नीतीश का नालंदा , गया के इलाके में बड़ा वोटबैंक है। इस इलाके में लंदन रिटर्न पुष्पम प्रिया चौधरी अपनी प्लूरल पार्टी का गठन कर बड़ी तेजी से प्रचार कर रहीं हैं। हालांकि, उनका इस इलाके में कुछ भी आधार नहीं है लेकिन इसके बावजूद अगर पुष्पम की पार्टी दस वोट भी पाती है तो नीतीश को ही इसका नुकसान होगा इसके अलावा एलजेपी भी नीतीश को नुकसान पहुंचाने की जुगत में है जिससे नीतीश चौतरफा घिरे हुए है।
इस पूरे खेल में फायदे के सारे सौदे बीजेपी के लिए ही हो रहे हैं जहां चिराग उनके लिए एक नई राजनीतिक जमीन तैयार कर रहे हैं तो महागठबंधन का वोट नई नवेली पार्टियों में बंट रहा है। नीतीश के साथ होना उसे अपनी सीटों पर लाभ पहुंचाएगा तो वहीं एलजेपी उसे अंदरखाने समर्थन देकर उसके लिए चुनावी समर आसान बना रही है।
बिहार के इन चुनावों में जातीय समीकरण में बीजेपी को जहां सबसे ज्यादा फायदा हो रहा है तो चुनाव में उतरे नए खिलाड़ी जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस के लिए मुसीबत का सबब बन गए हैं। अचानक बिहार की राजीति में उतरे ये दल जीतने से ज्यादा केवल चंद वोट में समेटने की स्थिति में हैं लेकिन वो जिसका वोट काटेंगे उनके लिए ये बेहद नुकसानदायक होगा।