अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में हार के बाद ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति के तौर पर अपनी छवि की अमिट छाप सुनिश्चित कर रहे हैं। विशेष रूप से ट्रम्प ने जिस तरह से पिछले 4 वर्षों में अमेरिका की विदेश नीति को तय किया है, खास कर अफगानिस्तान में अब उसे अंतिम स्वरूप देते हुए एक विशिष्ट छवि और विरासत का निर्माण करने जा रहे हैं, जिसे पूर्ववत करना नामुमकिन हो जाएगा।
कहा जाता है कि राष्ट्रपति ट्रम्प ने आलोचना के बावजूद अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की योजना को लागू कर दिया था। ट्रम्प का ऐसा करना सही है या गलत, यह केवल आने वाले समय में देखा जाएगा, लेकिन अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की संख्या को 2,500 तक कम करने का उनका निर्णय निश्चित रूप से एक साहसिक है, और यह दर्शाता है कि ट्रम्प यह जानते है कि वह अमेरिका के लिए अच्छा कर रहे हैं, भले ही इसका परिणाम पश्चिम और दक्षिण एशिया के लिए सकारात्मक न हो।
अगले वर्ष 20 जनवरी को राष्ट्रपति के रूप जो बाइडन के शपथ लेने की संभावना है। अब इसी के मद्देनजर ट्रम्प ने अपने राष्ट्रपति पद के अंतिम कुछ हफ्तों में अमेरिकी डीप स्टेट को अंतिम झटका देने का फैसला किया है। यह कोई रहस्य नहीं है कि अमेरिकी डीप स्टेट ने अमेरिका को कई युद्धों में, ज्यादातर अनावश्यक रूप से धकेला है जो सिर्फ हथियारों और कई अमरीकी लोगों के बिजनेस को बढ़ाने के लिए ही किया गया था। अब ट्रम्प ने अमेरिका के सबसे लंबे युद्ध यानि अफगानिस्तान से सेना को बाहर निकाल कर, डीप स्टेट के मंसूबों को पूरी तरह नष्ट करने का प्रबंध कर दिया है।
दरअसल, शनिवार को अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने कतर की राजधानी दोहा की अपनी यात्रा के दौरान अफगान सरकार और तालिबान दोनों वार्ताकारों से मुलाकात की। बैठक के तुरंत बाद यह पता चला कि अमेरिका अफगानिस्तान में अपने वर्तमान में तैनात सैनिकों में से आधे को वापस बुला रहा था। वर्तमान में अफगानिस्तान में लगभग 5000 अमेरिकी सैनिक हैं और राष्ट्रपति ट्रम्प नए फैसले के बाद, मात्र 2,500 सैनिक शेष रह जाएंगे।
इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाए तो यह फैसला किसी ऐतिहासिक फैसले से कम नहीं था। ऐसे फैसलों के लिए जब विश्व आपसे अधिक की उम्मीद कर रहा है, आसान नहीं होता और एक दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। उन्होंने हाल ही में रक्षा सचिव Mark Esper को केबिनेट से निकाल दिया था और यह अंदाजा लगाया गया था कि उन्होंने अफगानिस्तान से सैनिकों को निकालने पर अनिच्छा दिखाई थी। Esper का विचार था कि तालिबान ने निर्धारित शर्तों का पालन नहीं किया है इसलिए अमेरिका को भी वापस नहीं जाना चाहिए। हालांकि, यह सच्चाई है कि तालिबान ने निर्धारित शर्तों का पालन नहीं किया और अब अमेरिकी बलों पर हमले के बजाए नागरिकों और अफगान बलों पर तालिबान का हमला जारी है।
21वीं शताब्दी में, विशेष रूप से कोरोना के बाद के विश्व व्यवस्था में, तालिबान और अफगान सरकार का एक-दूसरे से लड़ना उनका आंतरिक मुद्दा है, और अमेरिका की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता नहीं है। अफगान युद्ध, जो 9/11 के आतंकी हमलों के बाद शुरू किया गया, शायद अमेरिका द्वारा लड़े गए सबसे निरर्थक युद्ध के रूप में साबित हुआ है। ट्रम्प इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं जिसके कारण तेजी से अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान से हटा रहे हैं।
अफगान युद्ध को समाप्त करने के लिए ट्रम्प की उत्सुकता ने अमेरिका के डीप स्टेट को परेशानी में डाल दिया है, जिसने लंबे समय तक अमेरिका के अनावश्यक युद्धों के कारण हथियारों के व्यापार से लाभ उठाया है।
हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि ट्रम्प कभी भी सिर्फ राजनेता नहीं थे, वह एक बिजनेसमैन ही थे। इस कारण से वह उन लोगों की राय की बिल्कुल परवाह नहीं करते थे जो आम तौर पर शीत युद्ध के युग की मानसिकता वाले नेता हैं और अमेरिका को अनवरत युद्ध के माध्यम से सुपर पावर बने रहने पर ज़ोर देते थे। हालाँकि, डोनाल्ड ट्रम्प की अफगानिस्तान से बड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिकों को तुरंत वापस बुलाने की योजना भी प्रमुख रणनीति भी है। ट्रम्प यह जानते थे कि अगर यह अब नहीं हुआ तो शायद कभी नहीं होगा।
जब तक ट्रम्प राष्ट्रपति बने रहते हैं, तब तक अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने की ताकत उनके पास रहेगी। एक बार जब सैनिकों को वापस ले लिया जाता है, तो यह जो बाइडन , या उनके बाद आने वाले राष्ट्रपतियों के लिए अमेरिकी सैनिकों को फिर से युद्ध में भेजना असंभव होगा, क्योंकि उन्हें दुनिया और अमेरिका की जनता को यह बताना होगा कि जिस युद्ध से अमेरिका पूरी तरह से निकल चुका था, उसमें उन्होंने फिर से US को धकेला। ऐसा आत्मघाती कदम, कोई राष्ट्रपति उठाने को तैयार नहीं होगा। यानि अब यह लगभग निश्चित है कि अफगान युद्ध को समाप्त करने वाले राष्ट्रपति के रूप में ट्रम्प को ही याद किया जाएगा, जो अमेरिकी डीप स्टेट के अवसाद का कारण बनेगा।