हलाल एक फूड चॉइस नहीं है,यह साजिश है मीट से जुड़ी अर्थव्यवस्था पर एकाधिकार की

हलाल का कारोबार एक षड्यंत्र है..

हलाल

किसी समाज पर हावी होने के कई तरीके हैं जैसे कि शिक्षा पद्धति पर नियंत्रण, इतिहास मिटा कर या उस समाज की संस्कृति अपने तरीके से ढाल कर। विश्व में फिलहाल, एक वर्ग ,एक अन्य ही तरीके से पूरे समाज पर हावी हो रहा है और वह तरीका है हलाल। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर में यही ट्रेंड देखने को मिल रहा है।  फ्रांस के गृह मंत्री गेराल्ड डर्मैनिन तो सुपरमार्केटों  में हलाल और कोषेर उत्पादों को देख कर चौंक गए।

बीएफएम टीवी से उन्होंने कहा कि, “सुपरमार्केट में चलने के दौरान इस तरह के सामुदायिक भोजन का एक गलियारा देखना हैरानी भरा है।” उन्होंने आगे कहा कि आपके पास मुसलमानों के लिए अलग गलियारे हैं, कोषेर के लिए गलियारे हैं, लेकिन आखिर सभी के लिए विशिष्ट गलियारे क्यों हैं?”

बता दें कि भारत में, कई मीडिया हाउस मार्केट में हलाल खाद्य उद्योग से बढ़ते समस्या को उठा चुके हैं,खासकर मीट उत्पादों के क्षेत्रों में। विश्व भर में मांसाहार के उद्योग पर मुस्लिम समुदाय अपना एकाधिकार जमा रहा है। इस्लाम के अनुयायी केवल हलाल मांस का सेवन करते हैं। हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेस इंडिया प्राइवेट लिमिटेड की परिभाषा के अनुसार, केवल अल्लाह के नाम पर बलि चढ़ाये गए पशु ही हलाल कहलाए जाने योग्य हैं। हलाल करने वाला कसाई मुस्लिम होना चाहिए और पशु के हलाल किए जाने से पहले बिस्मिल्लाह और अल्लाहू अकबर का उच्चारण अवश्य होना चाहिए

यह सर्वविदित है कि जहां भी मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहाँ इस समुदाय के कट्टरपंथी अपनी इच्छा दूसरे धर्मों के अनुयायियों पर थोपते हैं।  हलाल खाद्य बाजार पिछले कुछ दशकों में मुस्लिम आबादी के विकास के साथ-साथ यूरोपीय देशों में तेजी से बढ़ा है।  यूरोप में सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश फ्रांस में 8 बिलियन डॉलर का हलाल खाद्य बाजार है। एड्रोइट मार्केट रिसर्च के एक अध्ययन के अनुसार, वैश्विक हलाल बाजार की कीमत 500 बिलियन डॉलर से अधिक है। अगर हम तुलना करे तो यह उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र की जीडीपी से भी अधिक है।

2025 तक, वैश्विक हलाल मांस उद्योग पर मुसलमानों के पूर्ण एकाधिकार के साथ लगभग 9.71 ट्रिलियन डॉलर को छूने की उम्मीद है। यूनाइटेड किंगडम के खाद्य मानक एजेंसी के अनुसार, “प्रति सप्ताह कुल 16 मिलियन जानवरों के मीट में से 51 प्रतिशत लैम्ब, 31 प्रतिशत चिकन, और 7 प्रतिशत बीफ को ‘धार्मिक रूप से काटा जाता है’, उस देश की कुल मुस्लिम आबादी केवल 5 प्रतिशत है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हलाल किस तरह से हावी होते जा रहा है, इसका कारण यही हैं कि अधिकतर लोगों को या तो हलाल के बारे पता नहीं होता या फिर इस बात पर ध्यान नहीं देते कि मांस हलाल है या झटका।

खाद्य प्रसंस्करण कंपनियों को सांप्रदायिक रस्मों का पालन करने के लिए मजबूर करके, मुस्लिम समुदाय यह सुनिश्चित कर रहा है कि खाद्य उत्पादों पर खर्च किया गया पैसा समुदाय के लोगों के लिए जाता है, साथ ही इससे वे खाद्य उद्योग कि नौकरियों पर भी एकाधिकार जमा रहे हैं।

फ्रांस के आंतरिक मामलों के मंत्री गेराल्ड ने कहा, “सुपरमार्केट धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए विशिष्ट उत्पादों को बेचकर उन्हें बढ़ावा दे रही हैं।” हलाल मांस उद्योग मुसलमानों का ही,मुसलमानों के द्वारा ही लेकिन प्रयोग में सभी के लिए है। दुनिया में यूएसए, यूके और भारत जैसे देशों में अल्पसंख्यक होने के बाद भी मुस्लिम समुदाय ने बहुसंख्यक समुदाय को अपने मानकों के हिसाब से भोजन परोसने पर विवश कर दिया है। ये अन्य कुछ नहीं, बल्कि एक प्रकार का आर्थिक जिहाद है, जहां धार्मिक इच्छा के नाम पर एक ट्रिलियन डॉलर कि  इंडस्ट्री पर एकाधिकार जमा लिया गया है। सरल अर्थशास्त्र में भी ये बताया गया है कि किसी भी उद्योग में एकाधिकार अच्छी बात नहीं होती। पर यहाँ तो एक ऐसा उद्योग खड़ा हुआ है जिसका मूल्य दुनिया के कुछ बड़े देशों की जीडीपी से भी ज़्यादा बड़ा है, और विडम्बना तो देखिए, अर्थशास्त्री, अधिवक्ता और बड़े-बड़े एक्टिविस्ट्स इस पर चुप्पी साधे बैठे हैं।

यह पहली बार है जब एक शक्तिशाली राजनेता ने हलाल खाद्य उद्योग के मुद्दे को उठाया है, और यह खाद्य उद्योग के एकाधिकार के खिलाफ माहौल बनाने में टर्निंग पॉइंट साबित होना चाहिए। किसी सम्प्रदाय विशेष द्वारा अलग कपड़े और खाद्य बाजार जैसे हलाल से एक “समानांतर समाज” की स्थापना होती है जिससे अलगाववाद को बढ़ावा मिलता है।

कुछ ही दिनों पहले मैक्रोन ने इस बारे में बात की कि फ्रांस में मुस्लिम कैसे “समानांतर समाज” बनाने की कोशिश कर रहे हैं और देश के भीतर “इस्लामी अलगाववाद” को बढ़ावा दे रहे हैं। अगर दुनिया भर के देश कट्टरपंथी इस्लाम पर नकेल कसना चाहते हैं, तो शुरुआत हलाल भोजन और कपड़ों की बिक्री पर प्रतिबंध से होनी चाहिए क्योंकि ये प्रथाएं अलग पहचान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

 

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