पिछले कई महीनों से एक अदद कूटनीतिक जीत के लिए तरस रहे चीन को RCEP सरीखे तिनके का सहारा क्या मिला, उसके पाँव जमीन पर ही नहीं पड़ रहे हैं। कागज पर RCEP का गठन किसी अभूतपूर्व विजय से कम नहीं है, क्योंकि वैश्विक जीडीपी को 30 प्रतिशत तक योगदान देने वाले देश इसमें शामिल है। लेकिन चीन ये नहीं जानता था कि RCEP शुरू होने से पहले ही खत्म हो चुका है, और चीन को इससे कोई विशेष लाभ नहीं मिलने वाला।
ऐसा इसलिए है क्योंकि बाइडन चाहे जितने उदारवादी हैं, वे इतने आसान नहीं हैं कि ट्रम्प के चीन विरोधी अभियान को पूरी तरह खत्म कर दें, जिसे एक स्तर पर स्वयं चीनी मीडिया विभिन्न लेखों के माध्यम से स्वीकार चुकी है, और यही कारण है कि RCEP शुरू होने से पहले ही बर्बादी की कगार पे है।
पर ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए क्योंकि ट्रम्प ने बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति इंडो पेसिफिक के समीकरण पूरी तरह बदल दिए हैं। डेमोक्रेट्स भले ही ट्रम्प की कितनी भी खिंचाई कर ले, परंतु एक वास्तविकता यह भी है कि जितना दर्द ट्रम्प ने चीन को दिया है, उतना अमेरिका के इतिहास में किसी राष्ट्रपति ने नहीं दिया होगा। ओबामा प्रशासन में काम कर चुके चार्ल्स इडेल के अनुसार, “अब प्रश्न यह नहीं है कि एक नए समीकरण की क्या आवश्यकता है, अब प्रश्न यह है कि नया समीकरण कैसा हो, और किस प्रकार से उसे प्रयोग में लाया जाए।”
अब बाइडन भले ही चीन के प्रति नरम रुख रखे हों, और भले ही उन्होंने ट्रम्प के ट्रेड वॉर नीति की आलोचना की हो, परंतु सत्ता में आने के बाद बाइडन रातों रात ट्रम्प की चीन विरोधी नीतियों को नहीं पलट पाएंगे। अब चीन के विरुद्ध जाना व्हाइट हाउस के लिए विकल्प नहीं, बल्कि अवश्यंभावी है। इसलिए बाइडन की प्राथमिकता अमेरिका चीन की तनातनी को कम करना बिल्कुल नहीं होगा।
RCEP के दृष्टिकोण से चीन के साथ अमेरिकी टैरिफ वॉर बहुत महत्वपूर्ण हो जाएगा। अमेरिका के साथ जितना लंबा टैरिफ़ वॉर चलेगा, चीन के लिए RCEP में अपनी धाक जमाना उतना ही कठिन होगा। जितने ज्यादा टैरिफ़ होंगे, उतना ही चीन के बाकी RCEP सदस्य देशों के साथ बातचीत की मेज पर bargaining power कम होगी। ऐसी स्थिति में RCEP में होते हुए भी चीन न जापान, न दक्षिण कोरिया, और न ही किसी ASEAN समूह से संबंधित देश पर हावी हो पाएगा। यदि ऐसा ही रहा, तो RCEP चीन के लिए वरदान से ज्यादा अभिशाप सिद्ध होगा।
इसके अलावा ट्रम्प ने इंडो पेसिफिक क्षेत्र में जिस प्रकार से चीन को अलग थलग किया है, वो भी अपने आप में काफी शानदार है। उदाहरण के लिए भारत ने घरेलू कारणों से RCEP से जुडने से न सिर्फ मना किया, बल्कि चीन के विरुद्ध वैश्विक आक्रोश का लाभ उठाते हुए अपनी खुद की पहचान बनाई। ऐसे में चीन RCEP का हिस्सा बनके भी वैश्विक व्यापार में पुनः वर्चस्व नहीं जमा सकता।
RCEP पर भले ही हस्ताक्षर हो चुका हो, लेकिन ट्रम्प और नरेंद्र मोदी के प्रयासों के कारण ये शुरू होने से पहले ही अपनी सार्थकता खत्म कर चुका है, और चाहे बाइडन हो या जिनपिंग हो, कोई भी अब इसे वापिस नहीं ला सकता।