किसी भी राजनीतिक दल की सफलता के लिए प्रमुख तत्वों में से एक होता है जनता से संचार है यानि अपनी नीतियों को किस तरह और किस स्तर पर जनता के सामने रखते हैं। समान्यतः यह देखा गया है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने स्वयं के इकोसिस्टम का निर्माण करती है और अपने समर्थकों को बौद्धिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण सार्वजनिक पदों पर रखती है, चाहे वो मीडिया हो, शिक्षा हो, या कला जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि इसकी नीतियाँ और विचारधारा बिना किसी विकृति या पूर्वाग्रहों के देश के कोने-कोने में मौजूद जनता तक पहुंचे।
हालांकि, दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी, बीजेपी अपने खराब संचार की बदौलत अपनी सबसे अच्छी नीतियों को भी जनता तक पहुंचाने में सफल नहीं हो रही है। देश भर के लोग अपनी ईमानदारी और भ्रष्टाचार मुक्त छवि के लिए पार्टी और प्रधानमंत्री मोदी पर भरोसा करते हैं, और यह भी मानते हैं कि जहां तक राष्ट्रीय हित का सवाल है, वहां यह सरकार समझौता नहीं करेगी।
लेकिन, जब सरकार की नीतियों के बारे में संचार या लोगों से संवाद की बात आती है, तो वह संतोषजनक नहीं दिखाई देता है। विपक्षी पार्टियां झूठ पर झूठ फैला कर निकल जाती हैं, जिससे जनता को बस झूठ ही दिखाई देता है और सरकार की नीतियों में सिर्फ खामियाँ ही दिखाई देती है। इसके लिए सरकार में मौजूद अक्षम नौकरशाहों को दोष दिया जा सकता है, लेकिन तथ्य यह है कि उन नौकरशाहों को भी मोदी सरकार द्वारा ही चुना जाता है। इसके अलावा, ऐसे समय में जब हर क्षेत्र के पेशेवरों को मोदी सरकार लैटरल एंट्री के माध्यम से काम पर रख रही है, तो फिर जनता को सरकार की नीतियों को संचारित करने के लिए किसी पेशेवर को क्यों नहीं रखा गया है।
जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से यही हाल रहा है और वह अपनी नीतियों को जनता तक पहुंचाने में विफल रही, चाहे वह वस्तु एवं सेवा कर यानि GST हो, नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) हो, सार्वजनिक उपक्रमों यानि PSUs का निजीकरण हो या फिर या सबसे ताजा उदाहरण कृषि बिल पर देश भर में हो रहा विरोध। देश की नीति और राजनीति में इन बेहतरीन सुधारों का संदेश जन-जन तक नहीं पहुंच रहा है, जिसके कारण विपक्षी पार्टियां अपने झूठ को परोसने में सफल हो जा रही हैं।
न केवल मोदी सरकार, बल्कि राज्यों की भाजपा सरकार भी संचार में अक्षम दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर हाथरस मामला ही देखा जा सकता है जिसमे विपक्षी पार्टियों ने राज्य सरकार को बदनाम करने के लिए सभी हथकंडों को आजमा लिया था। इसी तरह, झारखंड में कई सुधार लागू करने के बावजूद पार्टी हार गई क्योंकि तत्कालीन सीएम रघुबर दास ने अपनी नीतियों की बारीकी या उसके फायदे मीडिया तक नहीं पहुंचा पाये थे। यही हाल मनोहर लाल खट्टर के साथ भी हुआ, जिन्हें चुनाव के बाद पहले से कम सीटें मिली। अगर यह कहा जाता है कि मीडिया विपक्षी पार्टियों के इकोसिस्टम का हिस्सा है तो इसका जवाब यह है कि आखिर 6 वर्षों में आपके इकोसिस्टम का हिस्सा मीडिया क्यों नहीं बना?
कांग्रेस, अपनी तमाम खामियों के बावजूद, राजनीतिक संचार के मामले में मोदी सरकार से बेहतर दिखाई देती है। यह सच है कि उसके तलवे चाटने वाले बुद्धिजीवी भरे पड़े हैं, तब यह सवाल उठता है कि आपने अपने बुद्धिजीवियों के लिए क्या किया जो जनता से सीधे जुड़ सके? पिछले 6 वर्षों से सत्ता से बाहर रहने और संसद में 10 प्रतिशत से कम सीटों के बावजूद, मुख्यधारा के मीडिया में कई लोग हैं जो कांग्रेस और गांधी परिवार के ही वफादार हैं।
सोनिया गांधी इसी के लिए प्रसिद्ध है कि कोई भी पत्रकार या बुद्धिजीवी 10 जनपथ जाने के बाद सरकार विरोधी नहीं रहता था। पत्रकार तवलीन सिंह ने अपनी पुस्तक, India’s Broken Tryst में इसके बारे में विस्तार से लिखा है। तवलीन सिंह ने लिखा, “उनके (सोनिया गांधी) पास एक अतिथि सूची होती थी, और उन वरिष्ठ संपादकों और प्रसिद्ध टीवी एंकरो को नियमित रूप से चाय और चिटचैट के लिए 10 जनपथ पर आमंत्रित किया जाता था, जिसके बाद आमतौर वे सरकार विरोधी नहीं रह जाते थे।”
मोदी सरकार को स्पष्ट रूप से पत्रकारों को अपने पक्ष में लाने के लिए ऐसे प्रस्ताव देने की संस्कृति बनाने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन सरकार की ओर से पेशेवर संचारकों या influencers की जरूरत है। जहां तक राजनीतिक संचार का सवाल है, यह सभी को पता है कि इस क्षेत्र में नौकरशाही की गुणवत्ता हमेशा खराब होती है। मोदी सरकार को ऐसे नौकरशाहों से छुटकारा पाना चाहिए, जिससे यह यह सुनिश्चित हो सके कि उसकी नीतियों के खिलाफ एक झूठे नैरेटिव का निर्माण नहीं हो।