जानिए, कैसे CAA कर रहा बंगाल में मतुआ समुदाय की मदद और इसी में BJP के लिए चुनावी जीत का मंत्र है

बंगाल विजय के लिए भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है

मतुआ

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सीएए के मुद्दे पर हमेशा ही केन्द्र सरकार की आलोचना की है, लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता ने शरणार्थी मतुआ समुदाय को लुभाने के लिए स्थायी घर देने की राजनीति खेली है क्योंकि वो जानती हैं कि ये समुदाय बंगाल चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है। ममता ने इन लोगों को नागरिकता दिलाने वाले सीएए का विरोध करके अपनी काफी भद्द पिटवा ली है। इसलिए अब ममता इनके मतदाताओं को साधने में  लगी हुई है, ज़बकि ये समुदाय सीएए लागू होने के बाद बीजेपी की तरफ झुक गया है।

डीएनए की एक रिपोर्ट के मुताबिक बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अब अपने राजनीतिक समीकरण साधना शुरू कर दिया है। ममता बनर्जी 9 दिसंबर को पश्चिम बंगाल के नादिया जिले के ठाकुर नगर में मतुआ समुदाय के बीच एक राजनीतिक जनसभा को संबोधित करेंगी और ममता बनर्जी इस रैली के जरिए मतुआ समुदाय के प्रति अपना विशेष लगाव होने का संदेश देंगी। ममता को यह समझ आ चुका है कि केवल एकमुश्त अल्पसंख्यक वोटों से काम नहीं चलने वाला है,  क्योंकि बीजेपी का बंगाल में बढ़ता प्रभुत्व उनके लिए मुसीबत का सबब बन गया है।

मतुआ समुदाय जनसंख्या की दृष्टि से बंगाल की दूसरी सबसे बड़ी पिछड़ी जाति मानी जाती है। मतुआ समुदाय का उत्तरी 24 परगना से लेकर नादिया जिले तक की 70 विधानसभा सीटों पर दबदबा है। जो की ममता को सत्ता तक पहुंचाने और सत्ता से दूर करने में सबसे अधिक भूमिका अदा कर सकते हैं। यही कारण है कि ममता किसी भी कीमत पर मतुआ समुदाय के इन लोगों को नाराज नहीं करना चाहती हैं। अपने इसी राजनीतिक एजेंडे के तहत ही ममता ने मतुआ समुदाय के गढ़ में रैली करने की ठानी है।

पश्चिम बंगाल में विधानसभा नजदीक होने पर अचानक मतुआ समुदाय के प्रति ममता बनर्जी का प्रेम जागृत हो गया है। हाल ही में उन्होंने 25000 शरणार्थी परिवारों को घर दिए थे। ममता की तरफ से यह भी कहा गया था कि आगे अभी ऐसे ही 1,25,000 परिवारों को घर और दिए जाएंगे। इन शरणार्थियों में सबसे बड़ी संख्या मतुआ समुदाय के हिंदुओं का ही है। यह सभी बांग्लादेश से आकर यहां शरणार्थियों की तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन्होंने लंबे वक्त तक भारत में नागरिकता पाने की कोशिशें की हैं। इसीलिए ये लोग ममता द्वारा दिए गए जमीनी हक से भी कुछ खास संतुष्ट नहीं थे। उनकी मांग केवल नागरिकता थी, जिस पर ममता सीएए का विरोध कर बैठीं। ममता का ये विरोध उन पर काफी भारी पड़ने वाला है।

मतुआ समुदाय ने पिछले सभी चुनावों में ममता बनर्जी को सत्ता तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साल 2010 में मतुआ समुदाय ने खुलकर ममता बनर्जी का समर्थन किया था। इसी तरह साल 2014 में भी मतुआ समुदाय के प्रमुख नेता कपिल कृष्ण ठाकुर ने टीएमसी के टिकट पर ही लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था। साल 2015 में मतुआ समुदाय ने एक बार फिर टीएमसी का का समर्थन किया था, लेकिन मतुआ के प्रमुख परिवार की मतुआ माता के निधन के बाद परिवार में विघटन की स्थिति आ गई। परिवार के ही सदस्य मंजुल कृष्ण ठाकुर ने बीजेपी की सदस्यता ग्रहण कर ली, और ये ममता के लिए मुसीबत की शुरुआत साबित हुआ।

मतुआ समुदाय के इन लोगों का झुकाव धीरे-धीरे बीजेपी की तरफ बढ़ रहा है। जिसका उदाहरण साल 2019 का लोकसभा चुनाव भी था। बांग्लादेश से आए मतुआ कम्युनिटी के इन शरणार्थियों को नागरिकता दिलाने में बीजेपी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  केंद्र सरकार द्वारा लागू नागरिकता कानून इन सभी शरणार्थियों को भारत में नागरिकता दिलाने में महत्वपूर्ण साबित होगा। मतुआ समुदाय का मुख्य संघर्ष नागरिकता के नाम पर ही था और बीजेपी ने उसे पूरा किया, बंगाल दौरे पर गए अमित शाह ने भी इस समुदाय के प्रति अपने सकारात्मक रुख को उजागर किया था, और उनके विकास की बात कही थी। जिसके चलते बीजेपी के पास इस बार इस समुदाय के बीच अपनी राजनीतिक पकड़ और अधिक मजबूत करने का मौका है।

बीजेपी के लिए बना ये मौका टीएमसी के लिए मुसीबत का सबब बन गया है। बहुसंख्यकों के एकमुश्त वोट के अलावा भाजपा ने 2019 लोकसभा चुनाव में टीएमसी के मतुआ वोट बैंक पर भी सेंधमारी कर दी थी। जिसके परिणाम टीएमसी के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक थे। मुख्य बात यह है कि बीजेपी के प्रति ये झुकाव मतुआ समुदाय ने सीएए लागू होने से पहले ही जाहिर कर दिया था। ऐसे में सीएए लागू होने के बाद तो इस समुदाय के लोगों के बीच बीजेपी की पकड़ और मजबूत हो गई है।

बीजेपी की मतुआ समुदाय के बीच मजबूत होती पकड़ ममता बनर्जी की सत्ता जाने का संदेश देने लगी है और इसीलिए ममता अपने चुनावी एजेंडे में मतुआ समुदाय को अधिक महत्व दे रही हैं जबकि इसका मुख्य लाभ केवल बीजेपी ही मिलने वाला है।

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