बाइडन प्रशासन ने फिलिस्तीनी शरणार्थियों को दी जाने वाली आर्थिक मदद पुनः बहाल कर दी है। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के कार्यकारी राजदूत रिचर्ड मिल्स ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में दिए गए अपने भाषण में यह बात बताई। उन्होंने बताया कि अमेरिका द्विराष्ट्र सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्ध है तथा इजरायल के साथ ही व्यवहार्य फिलिस्तीन राज्य की स्थापना चाहता है। उनका कहना था कि यह इजरायल को लोकतांत्रिक यहूदी राज्य के रूप में भविष्य में भी सुरक्षित रखने हेतु सबसे अच्छा उपाय है।
बाइडन ने अपने पदग्रहण के छः दिनों के भीतर ही ट्रम्प की कई नीतियों को पलटा है, जिनमें से इजरायल की नीति भी एक है। ट्रम्प ने इजरायल को पूर्ण समर्थन की नीति को अपनाया था। ट्रम्प ने Palestine Liberation Organization के वाशिंगटन डीसी स्थित कार्यालय को बन्द कर दिया था। उन्होंने फिलिस्तीन को आर्थिक मदद देने वाले UN रिलीफ फंड को बन्द कर दिया था। अमेरिकी दूतावास को Tel Aviv से हटाकर यरुशेलम स्थानांतरित कर दिया तथा यरुशेलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता दी।
इतना ही नहीं उन्होंने गोलन हाइट्स पर इजराइली कब्जे को भी मान्यता दे दी थी तथा एक शांति समझौते का प्रस्ताव दिया था जिसमें वेस्ट बैंक को भी इजरायल को सौंपने की बात की गई थी। यह सब अमेरिका की इजरायल पर पारंपरिक नीति में बड़ा फेरबदल था, जिससे मुस्लिम जगत का कट्टरपंथी तबका नाराज था। किंतु इतने के बाद भी वास्तविक हालात यह थे कि कट्टरपंथियों को किसी प्रमुख मुस्लिम शक्ति का सहयोग नहीं मिल रहा था, जिससे उनका मनोबल गिर रहा था।
ट्रंप ने इजरायल के प्रति जो नीति अपनाई थी वह वोट बैंक के लिए नहीं बल्कि वास्तविकता के धरातल पर बनी थी। वास्तविकता यह है कि इजरायल-फिलिस्तीन का मुद्दा कश्मीर की तरह ही उलझा है। द्विराष्ट्र सिद्धांत एक छलावा है। दोनों पक्ष ऐतिहासिक और भूराजनीतिक रूप से एक दूसरे के इतने विपरीत हैं कि ये कभी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के साथ नहीं रह सकते।
द्विराष्ट्र सिद्धांत द्वारा शांति स्थापित हो ही नहीं सकती। 1948 से 2016 तक एक लंबा अंतराल बीत चुका है, अब तक यह मुद्दा इस नीति के कारण नहीं सुलझा। ऐसे में दोनों में एक पक्ष को पीछे हटना होगा, भले आदर्शवादी रूप से यह बात सही न लगे। द्विराष्ट्र सिद्धांत शीत युद्ध के समय चलने वाली अंतरराष्ट्रीय राजनीति का ही एक उदाहरण है, जब वैश्विक महाशक्तियां समस्याओं का समाधान नहीं चाहती थीं, बल्कि उन्हें उलझाए रखना चाहती थीं, जिससे हथियारों का व्यापार और अपना वैचारिक फैलाव सुनिश्चित किया जा सके।
यह सत्य है कि इजरायल की भूमि पर कभी फिलिस्तीनी मुसलमानों का शासन था। किंतु यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि इजरायल पर पारंपरिक रूप से यहूदियों का ही कब्जा रहा था, जिन्हें उनकी पवित्र भूमि से खदेड़ दिया गया। ऐसे में ऐतिहासिक रूप से अपने कब्जे को दोनों ही पक्ष जायज ठहरा सकते हैं। दोनों पक्ष अपने अधिकारों को अंतिम सत्य मानते हैं। ऐसे में क्षेत्र के शांतिपूर्ण विकास को ऐतिहासिक के बजाए व्यवहारिक रूप से सुलझाया जाना चाहिए था जैसा ट्रम्प कर रहे थे।
इजरायल की भूमि पर यहूदी राज्य के अधिकारों को मान्यता फिलिस्तीनी शरणार्थियों को भी मुख्यधारा में आने का मौका देती, जो लंबे समय से ऐसे संघर्ष में फंसे हैं जिसे वे अगली कई सदियों में भी नहीं जीत पाएंगे। यदि इजरायल की भूमि पर बने लोकतांत्रिक यहूदी राज्य को फिलिस्तीनी स्वीकार करते हैं तो वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा भी बन सकते हैं, जैसा उसी क्षेत्र के अन्य किसी मुस्लिम देश में संभव नहीं।
ट्रम्प के प्रस्ताव को पश्चिम एशिया की शक्तियां भी स्वीकार कर रही थीं, यही कारण था कि UAE तथा अन्य अरब देश इजरायल के साथ रिश्ते सामान्य करने लगे थे। किंतु ट्रम्प के प्रति चिढ़ और उनकी नीतियों को बेकार साबित करने की सनक में बाइडन फिर से फिलिस्तीन के जीन को बोतल से निकाल रहे हैं।
रिपोर्ट के अनुसार बाइडन ने तय किया है Robert Malley को वे ईरान में अमेरिका का विशेष प्रतिनिधि बनाकर भेजेंगे। यह खबर भी इजरायल की चिंता बढ़ाने वाली है क्योंकि Malley अपनी इजरायल विरोधी सोच के लिए प्रसिद्ध है। रिपोर्ट के अनुसार कई पूर्व इजरायली अधिकारी, जिन्होंने Malley के साथ काम किया है, वे इस खबर को लेकर निराश हैं।
बाइडन का ट्रम्प की नीतियों में बदलाव केवल इजरायल के लिए समस्याएं नहीं खड़ी करेगा, बल्कि अरब देशों की भी चिंताएं जल्द बढ़ेंगी। बाइडन ईरान के साथ भी शांति वार्ताओं को शुरू करना चाहते हैं, जबकि ईरान की ओर से इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम को बन्द करेगा। बाइडन की मूर्खता, वर्षों के संघर्ष के बाद हुए शांति के प्रयासों को क्षति पहुँचाएगी।