जो बाइडन ने ईरान न्यूक्लियर डील को लेकर यह दावा किया था कि सत्ता में आने पर वह ईरान के साथ पुनः 2015 वाले समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे। इसके बाद उन्होंने सत्ता में आते ही कई नीतिगत बदलाव किए लेकिन इन सब से ईरान का मनोबल इतना बढ़ गया कि वह अपने यूरेनियम संचय की मात्रा को बढ़ाने लगा।
ईरान द्वारा यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि पहले अमेरिका उसपर से प्रतिबंध हटाए, तब वह 2015 की न्यूक्लियर डील के लिए बातचीत करेगा। इन सब बातों ने पहले ही बाइडन प्रशासन के लिए ईरान से पुनः समझौता करना, मुश्किल बना दिया था। लेकिन अब बाइडन की मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं क्योंकि अब मैक्रॉन ने यह साफ कर दिया है कि फ्रांस की मध्यस्थता के बाद ही किसी न्यूक्लियर डील पर समझौता होगा।
मैक्रॉन ने समझौते के लिए किसी भी चर्चा में शामिल होने की बात कही। उन्होंने कहा “मैं अमेरिका की ओर से बातचीत के पुनः प्रयासों में मदद करने के लिए कुछ भी करूंगा, और मैं कोशिश करूंगा कि मैं एक निष्पक्ष मध्यस्थ की भूमिका निभाऊं और बातचीत के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध रहूँ।”
मैक्रॉन के आने के बाद यह तय है कि अमेरिका के लिए अब किसी भी समझौते में पश्चिमी एशिया के दो प्रमुख देश, इजराइल और सऊदी अरब को नजरअंदाज करना नामुमकिन होगा। गौरतलब है कि बाइडन ने अपने कई फैसलों से यह बताया कि उनके कार्यकाल में अमेरिकी विदेश नीति में इन देशों का वह स्थान नहीं होगा जो ट्रम्प के दौर में हुआ करता था।
बाइडन ने इजराइल के विरुद्ध फैसला करते हुए फिलिस्तीनी शरणार्थियों को दी जाने वाली आर्थिक मदद पुनः बहाल कर दी, यह जानते हुए की इन शरणार्थियों में से कई, इजराइल विरोधी आतंकी घटनाओं में संलिप्त रहते हैं। उन्होंने वेस्ट बैंक पर इजराइली आधिपत्य को मान्यता देने से इनकार किया और द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया।
साथ ही उन्होंने यमन गृहयुद्ध में सऊदी अरब को, अमेरिका की ओर से मिल रही मदद, बन्द करने का फैसला किया। यमन गृहयुद्ध से अमेरिका का हटना सीधे तौर पर हूती विद्रोहियों को मदद देगा, जो ईरान की सहायता से सऊदी अरब के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।
बाइडन की इन्हीं नीतियों ने सऊदी और इजराइल, दोनों को चिंता में डाल दिया था। इन्हें भय था कि बाइडन ईरान से न्यूक्लियर समझौता भी, बिना इन देशों को संज्ञान में रखे ही कर लेंगे। किंतु फ्रांस के हस्तक्षेप से समीकरण बदल गए हैं।
मैक्रॉन ने स्पष्ट किया है कि “हमें सऊदी अरब और इजराइल को भी इस बातचीत में शामिल करने के लिए कोई मार्ग ढूंढना होगा, क्योंकि वे क्षेत्र में हमारे उन कुछ प्रमुख सहयोगियों में हैं, जो इस समझौते के परिणामों से प्रत्यक्षतः प्रभावित होंगे।”
यह पहला मौका नहीं है जब फ्रांस ने इजराइल और सऊदी के पक्ष में बात की है। इसके पहले भी फ्रांसीसी राष्ट्रपति के कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा था कि यदि ईरान वास्तव में न्यूक्लियर डील पर वापस आना चाहता है तो उसे पहले उकसावे की कार्रवाई से बचना होगा और उन नियमों का सम्मान करना सीखना होगा, जिनका सम्मान वह लंबे समय से नहीं कर रहा। उनका इशारा ईरान के यूरेनियम संवर्धन और 2015 के समझौते के उल्लंघन की ओर था।
ईरान भी यह समझ गया है कि परिदृश्य में मैक्रॉन का प्रवेश उसके लिए मुश्किलें बढ़ाएगा। इसीलिए ईरान के विदेश मंत्री जवाद जरीफ ने कहा है “न्यूक्लियर समझौते को किसी मध्यस्थ की जरूरत नहीं है”।
देखा जाए तो फ्रांस का प्रवेश ईरान ही नहीं, बाइडन के लिए भी मुश्किलें खड़ी करने वाला है। बाइडन ट्रम्प की ईरान नीति की आलोचना करते रहे थे। किंतु उनके सत्ता में आने के बाद ईरान ने पहले यूरेनियम संवर्धन किया एवं फिर अमेरिका के सामने यह शर्त रखी, की पहले अमेरिका प्रतिबंध हटाए, तब ईरान अपने न्यूक्लियर कार्यक्रम पर चर्चा करेगा। इन बातों ने बाइडन को बैकफूट पर धकेल दिया।
यदि वे ईरान की शर्तों को स्वीकार कर लेते हैं तो एक कमजोर राष्ट्रपति दिखाई देंगे। बिना शर्तों को स्वीकार किए, ईरान बातचीत को तैयार नहीं हो रहा। ऐसे में बाइडन मजबूर हैं कि वह ईरान पर लगे प्रतिबंधों को जारी रखें। ऐसा करने का मतलब हुआ कि वह ट्रम्प की ईरान नीति को आगे बढ़ा रहे हैं। बाइडन कभी पीछे हटने की सोचेंगे तो भी फ्रांस उन्हें ऐसा नहीं करने देगा।