हिन्दू महिलाएं मंदिर पूजा करने नहीं, पुरुषों को लुभाने जाती हैं’, ऐसे उपन्यास को मिला Kerala Sahitya Akademi Award

उपन्यास

PC: The Indian Express

आज के दौर में हिन्दुओं को बदनाम करना, मंदिरों पर लांछन लगाना और हिन्दू महिलाओं के चरित्र पर दोष लगाना एक फैशन सा बन गया है। हिन्दुओं को इस तरह बदनाम करने के लिए सिर्फ टीवी सीरिज या फिल्म ही नहीं बनाई जा रही, बल्कि किताब भी लिखी जा रही है और किसी किसी राज्य में ऐसी मानसिकता वाले शासन में बैठे लोग ऐसी किताबों को अवार्ड भी दे रहे हैं।

दरअसल, केरल साहित्य अकादमी ने सोमवार को वर्ष 2019 के लिए पुरस्कारों की घोषणा की। इस दौरान एस हरीश के ”मीशा” (मूंछ)को सर्वश्रेष्ठ उपन्यास चुना गया जो हिन्दू महिलाओं पर यह लांछन लगाता है कि वे मंदिर सेक्स के लिए जाती हैं। लेखक का नाम S Hareesh है और उपन्यास का नाम ‘Meesha’ है। हालांकि, केरल की कम्युनिस्ट सरकार से इस तरह के व्यव्हार से अधिक की उम्मीद की भी नहीं जा सकती है।

एक ट्विटर यूजर  @thegeminian_ ने ट्विटर पर थ्रेड के जरिए इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे इस उपन्यास ने मंदिर जाने वाली महिलाओं को बदनाम किया और उन्हें सेक्स के इच्छा रखने वाली के रूप में चित्रित किया।

उन्होंने किताब के एक भाग को समझाते हुए बताया कि उपन्यास का एक हिस्सा दो दोस्तों के बीच बातचीत का वर्णन करता है जिसमें एक दोस्त कहता है कि महिलाएं मंदिर इसलिए जाती हैं, जिससे पुरुषों, विशेष रूप से पुजारियों, को यह पता चले कि वे सेक्स के लिए उपलब्ध हैं। महावारी के समय में महिलाओं के मंदिर न जाने के पीछे कारण भी बेहद अपमानजनक बताया गया है।

केरल के भाजपा प्रमुख के सुरेंद्रन ने इस उपन्यास को अवार्ड दिए जाने का विरोध किया और कहा, “केरल ने ऐसा अपमानजनक उपन्यास नहीं देखा है। मीशा को अवार्ड देने के फैसले को हिंदू समुदाय के खिलाफ एक घटिया कृत्य के रूप में देखा जाना चाहिए। सबरीमाला मुद्दे के बाद हिंदुओं का अपमान करने का यह दूसरा मुद्दा है।’

ध्यान देने वाले बात यह है इस किताब को लेकर कई बार विवाद उठ चुका है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी जा चुका है लेकिन तत्कालीन जजों की  नजर में यह OK था, तथा इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा गया था। यह विडम्बना ही है कि अगर इसी तरह की बातें किसी अन्य संप्रदाय के लिए लिखी गईं होती तो अब तक कई दंगे शायद हो चुके होते।

बता दें कि तब सुप्रीम कोर्ट के सामने किताब के उस भाग को भी प्रस्तुत किया गया था जिसमें हिंदू महिलाओं के मंदिर जाने के संबंध में उपन्यास में दो पात्रों के बीच बातचीत होती है और बातचीत में मंदिर जाने वाली महिलाओं का अपमान किया गया है और उन्हें ‘सेक्स’ ऑब्जेक्ट की तरह पेश किया गया है।

बावजूद इसके भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीश पीठ ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध लगाने से इंकार कर दिया था और इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी करार दिया था। तब न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की थी कि आप इस तरह के मामले को अनुचित महत्व दे रहे हैं। इंटरनेट के युग में, आप इसे एक मुद्दा बना रहे हैं। अच्छा यही होगा कि इसे भूल जाया जाये।“

इस उपन्यास को पहली बार मलयालम साप्ताहिक मातृभूमि में प्रकाशित किया गया था। हालांकि, साप्ताहिक में तीन अध्याय प्रकाशित करने के बाद इसे बंद कर दिया गया था। इसे बाद में डीसी बुक्स द्वारा एक पुस्तक के रूप में इसे प्रकाशित किया गया था।

अब इस पुस्तक को पुरस्कार मिलना दिखाता है कि कैसे अकादमी क्षेत्र की मदद से हिन्दू धर्म को बदनाम करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है  तथा उसे वैधता दी जा जा रही है। आज अपने ही देश में हिन्दुओं की यह हालत है कि वह Freedom Of Expression के कारण उनके धर्म की महिलाओं और मंदिरों को बदनाम करने वालों का विरोध नहीं कर सकते। अगर विरोध भी करते हैं तो उसे महत्व न देने के लिए कहा जाता है। अगर यही किसी अन्य संप्रदाय की बात होती तो अब तक न जाने कितने लेख लिखे गए होते। परन्तु हिन्दू धर्म पर हमले को लेकर सबके मुहं में दही जम जाती है। ऐसे में इस तरह की किताबों के खिलाफ भी अब आवाज उठाने के लिए लोगों को आगे आना चाहिए ताकि इस तरह से कोई भी हिन्दू धर्म या महिलाओं का अपमान न कर सके।

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