इन दिनों जस्टिन ट्रूडो अजब ही दुविधा में पड़े हैं। खालिस्तानियों द्वारा प्रायोजित ‘किसान आंदोलन’ पर अपने बड़बोलेपन से वे पहले ही काफी किरकिरी झेल चुके हैं, और अब भारत के लाल किले पर झंडा फहराए जाने वाले मामले के बाद वो काफी असमंजस में पड़ चुके हैं कि करें तो क्या करें, भारत सरकार का साथ दें या खालीस्तानियों का।
दरअसल, कनाडा के न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (NDP) के प्रमुख एवं सांसद जगमीत सिंह ने ट्रूडो से कहा कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो जल्द से जल्द भारत में चल रहे किसान आंदोलन का समर्थन करें और ‘हिंसक किसानों’ के खिलाफ हुई कार्रवाई की निंदा करें।
I am deeply concerned about the violence against farmers in India
Those calling to harm farmers must be held accountable and the right to peaceful protest must be protected
I am calling on Justin Trudeau to condemn the violence, immediately
Join me: https://t.co/lNairgWw2L pic.twitter.com/r6QvXcWwsU
— Jagmeet Singh (@theJagmeetSingh) January 29, 2021
अपने ट्विटर अकाउंट पर प्रकाशित वीडियो में जगमीत सिंह ने दिल्ली के अलग-अलग बॉर्डरों पर चल रहे किसान आंदोलन को इतिहास का सबसे बड़ा किसान आंदोलन बताया है। कनाडाई सांसद ने कनाडा के साथ-साथ बाकी देशों के नेताओं से भी अपील की है कि वे दिल्ली में ‘शांतिपूर्ण प्रदर्शन’ कर रहे किसानों के प्रति भारत सरकार की ‘हिंसक प्रतिक्रिया’ की निंदा करे।
तो ट्रूडो को आखिर किस बात की दुविधा है? यदि वे विपक्ष के दबाव में भारत सरकार की निन्दा करते हैं और अराजकतावादियों को बढ़ावा देते हैं, तो न केवल भारत से उनके संबंध रसातल में चले जाएंगे, बल्कि मलेशिया और नेपाल की तर्ज पर भारत कनाडा के साथ अपने कूटनीतिक और व्यापारिक संबंधों पर पुनर्विचार भी कर सकता है, जो ट्रूडो की सत्ता के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा।
लेकिन ऐसा क्यों है? दरअसल, जब किसान आंदोलन नवंबर के अंत में प्रारंभ हुआ था, तो प्रदर्शनकारियों को दिल्ली कूच करने से रोकने के लिए दिल्ली पुलिस ने वॉटर कैनन चलाए थे। इसे सरकार की बर्बरता के रूप में प्रदर्शित करते हुए वामपंथी मीडिया ने दुनिया भर में इसे ‘शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर सरकार के दमन’ के रूप में प्रदर्शित किया, और बिना कुछ सोचे समझे जस्टिन ट्रूडो ने केंद्र सरकार की आलोचना शुरू कर दी। ट्रूडो ने न केवल भारत में किसानों द्वारा नए कृषि कानूनों के खिलाफ कथित ‘शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन’ के बारे में चिंता जताई, बल्कि यह भी कहा कि भारत, विशेषकर पंजाब प्रांत के किसान उनपर विश्वास कर सकते हैं।
अब इसमें कोई दो राय नहीं है कि ट्रूडो खालिस्तानियों के समर्थन से ही कनाडा के प्रधानमंत्री दोबारा बन पाए हैं, और इसीलिए वह इस विषय पर अपनी सीमाएँ भी लांघ गए। लेकिन जब से लाल किले वाले मामले ने तूल पकड़ा है, ट्रूडो ने भी मौन धारण कर लिया है। अब वे न तो इस आंदोलन के समर्थन में बोल रहे हैं, और न ही वह इसके विरुद्ध जा सकते हैं।
यदि ट्रूडो ने लाल किले पर झंडा फहराने वाले मामले का विरोध किया, तो इससे न केवल खालिस्तानियों में रोष फैलेगा, बल्कि उन्हें अपनी सत्ता से भी हाथ धोना पड़ सकता है। लेकिन यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया, और अराजकतावादियों को बढ़ावा देने का प्रयास किया, तो इससे स्पष्ट हो जाएगा कि ट्रूडो खालिस्तानियों का खुलकर साथ दे रहे हैं, और ये कूटनीतिक तौर पर ट्रूडो की सरकार के लिए विनाशकारी कदम सिद्ध होगा। विश्वास नहीं होता तो भारत को चुनौती देने वाले मलेशियाई प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद और नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली से ही आप पूछ सकते हैं।
ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि कनाडा पीएम ट्रूडो का मौन रहना उनकी सूझ बूझ कम और उनकी मजबूरी अधिक है। यदि भारत का पक्ष लेंगे, तो भी नुकसान है, और यदि नहीं लेंगे, तो भी नुकसान है। अब आखिर जस्टिन ट्रूडो करें तो क्या करें।