जिस सऊदी अरब को पाकिस्तान आंखें दिखाते हुए तुर्की के साथ एक अलग इस्लामिक जगत बनाने पर तुला हुआ था, वही पाकिस्तान अब फिर से सऊदी अरब का विश्वास जीतने में लगा हुआ है, जिसके लिए उसने फिर से अपना पारंपरिक लैंग्वेज कार्ड खेला है।
हाल ही में पाकिस्तान के सांसद ने एक बिल पास किया है जिसके अन्तर्गत इस्लामाबाद में अरबी भाषा का पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया गया है। इस विधेयक को निजी तौर पर पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) के सांसद जावेद अब्बासी ने अगस्त 2020 में पेश किया था, और इस विधेयक के पारित होने से अब कक्षा एक से पांच तक अरबी भाषा पढ़ाई जाएगी और कक्षा छह से बारह तक अरबी व्याकरण पढ़ाया जाएगा ।
अब इसका अर्थ क्या है? इससे पाकिस्तान को क्या मिलेगा? दरअसल, अरबी भाषा को महत्व देने का सबसे बड़ा अर्थ यही है कि पाकिस्तान एक बार फिर से सऊदी अरब के साथ अपने संबंध बहाल करना चाहता है और वह किसी भी स्थिति में उससे अपने लिए नए कर्ज निकलवाना चाहता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच इस समय संबंध रसातल में है, जिसका सबसे प्रमुख कारण रहा है इमरान खान का शासन और उसकी लचर विदेश नीति।
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लेकिन ये भाषाई प्रेम यूं ही नहीं आया है। इससे पहले भी पाकिस्तान ने इसी नीति के अंतर्गत अपने देश में चीनी भाषा के पढ़ाए जाने को मंजूरी दी थी। इसी पर तंज कस्ते हुए पूर्व कैबिनेट मंत्री रहमान मलिक ने चर्चा के दौरान कहा कि यदि वे पैसों के लिए चीनी सीख सकते हैं तो अरबी सीखने में क्या चला जाएगा?
हालांकि, जनता के भारी विरोध के बाद चीनी भाषा को देश भर में लागू करने के निर्णय को वापिस अवश्य लिया गया, परन्तु अब अरबी भाषा पर कुछ ज़्यादा ही फोकस करने की नीति ने एक बार फिर पाकिस्तान को उसी राह पर लाकर पटक दिया है।
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इसीलिए भाषा कार्ड से भले ही पाकिस्तान अपनी नैया पार लगाना चाहता हो, परन्तु अब उसकी दाल सऊदी अरब के सामने नहीं गलने वाली, क्योंकि वह इमरान खान के शासन द्वारा अपना अपमान अभी भूला नहीं है।