सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव आज कल टेम्पल रन खेल रहे हैं। मोबाइल पर नहीं, बल्कि असल में वे मंदिर मंदिर परिक्रमा कर रहे हैं। वो पहले अयोध्या गए जहां उन्होंने श्रीरामलला के बन रहे भव्य मंदिर का दर्शन किया, जिसके बाद उन्होंने अयोध्या में उनकी सरकार के दौरान हुए कुछ कार्यों को गिनाया और बताया कि भाजपा नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी ही असली रामभक्त हैं। उन्होंने कहा “राम समाजवादी दल के हैं, वो (अखिलेश) ही असली रामभक्त और कृष्णभक्त हैं।” इसके बाद वे चित्रकूट गए, वहां लक्ष्मण पहाड़ी और कामदगिरि मंदिर के दर्शन किये।
चित्रकूट में रोप-वे का रंग-रोगन तो करा दिया गया पर लक्ष्मण पहाड़ी मंदिर के परिसर और चित्रकूट के कई मार्गों व विकास के अन्य काम उपेक्षित पड़े हैं.
भाजपा याद रखे विकास के रंग बहुरंगी और बहुआयामी होते हैं.
अब उप्र की जनता कह रही है :
भाजपा के चार साल पूरे
लेकिन सारे काम अधूरे! pic.twitter.com/VKpneNC0JF— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) January 8, 2021
अखिलेश यादव इन दिनों भाजपा और योगी आदित्यनाथ से प्रतिस्पर्धा के लिए मंदिरों कि परिक्रमा कर रहे हैं। लेकिन अपने इस राजनीतिक दांव को चलते समय भी अखिलेश इस बात का ध्यान रख रहे हैं कि उनके मुस्लिम वोटबैंक उनसे नाराज न हो। यही कारण है कि अखिलेश श्रीकृष्ण जन्मभूमि नहीं गए। इस समय श्रीकृष्ण जन्मस्थान और शाही ईदगाह मस्जिद का विवाद कोर्ट में है, ऐसे में अखिलेश नहीं चाहते कि मुस्लिमों को ऐसा लगे कि वो श्रीकृष्ण जन्मस्थान के विवाद को हवा दे रहे हैं।
दरअसल, अखिलेश कई राजनीतिक प्रयोग करने के बाद समाजवादी पार्टी कि पारम्परिक राजनीति पर वापस लौट आएं हैं। उन्होंने 2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, नतीजा यह हुआ कि उनकी पार्टी कि सीटें उम्मीद से भी कम आईं। इसके बाद 2019 में समाजवादी दल कि पारम्परिक प्रतिद्वंदी मायावती से भी गठबंधन किया। अखिलेश को लगा था कि यह उनका मास्टर स्ट्रोक है, क्योंकि इसमें मायावती के आलावा राष्ट्रीय लोक दाल भी शामिल था। अखिलेश के कोर वोटर यादव और मायावती के कोर वोटर जाटव समुदाय के वोटबैंक और RLD के जाट समुदाय के आलावा मुस्लिम समाज के वोट के भरोसे अखिलेश को उम्मीद थी कि वे यू०पी० की 50% फीसदी आबादी को साध लेंगे और गठबंधन कम से कम 60 सीटें जीतेगा।
लेकिन अंत में मायावती के वोटबैंक ने अखिलेश की पार्टी को वोट नहीं किया। इसका एक कारण तो प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चलाई गई कई योजनाएं थीं, जिन्होंने उसी वर्ग को सबसे अधिक लाभ पहुँचाया जो मायावती के कोर वोट बैंक है। ऐसे में इस वोटबैंक ने ऐसी स्थिति में जब भाजपा और सपा में एक को चुनने का प्रश्न हुआ, तो इसने भाजपा को चुना। मायावती का वोटबैंक अखिलेश को ट्रांसफर नहीं होने के कारण समाजवादी पार्टी की करारी हार हुई।
अब अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी की पुरानी रणनीति ‘यादव-मुस्लिम’ गठबंधन का पुनः प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन इसके भी सफल होने की गुंजाईश न के बराबर है। ऐसा इसलिए क्योंकि अब मुस्लिम वोटबैंक के कई दावेदार मैदान में हैं। एक और कांग्रेस है, जिसने पहले ही प्रियंका गाँधी को मैदान में उतारकर अपनी तैयारी शुरू कर दी है। दूसरी और औवेसी की पार्टी है।
वहीं, मायावती राजनीतिक दोराहे पर खड़ी हैं। उनके सामने प्रश्न है की भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ें या अकेले ही मैदान में आएं। उनकी समस्या यह है कि भाजपा अपनी ओर से उन्हें निमंत्रण नहीं देने वाली। शुरू में इसके कयास लगाए जा रहे थे लेकिन कोरोना के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जैसा काम किया है उसने उनकी राजनीतिक साख में बहुत बढ़ोतरी की है। कोरोना के दौरान उत्तर प्रदेश में लगातार निवेश हुआ है, जिसने योगी की छवि हिंदूवादी नेता के साथ ही विकास के अग्रदूत की भी बना दी है। वह इस समय भाजपा के स्टार प्रचारक भी हैं, ऐसे में इसकी उम्मीद कम है कि भाजपा 2022 में किसी अन्य पार्टी के साथ गठबंधन करेगी।
बात करें कांग्रेस की तो वो लगातार अपनी यूपी में प्रियंका गांधी के जरिये समाजवादी पार्टी और बसपा को मात देने की प्लानिंग की है। इस बार कांग्रेस के लिए मौका भी है क्योंकि मुस्लिम समुदाय सपा से नाराज चल रहा है ऐसे में वो कांग्रेस को अपने विकल्प के तौर पर देख सकता है।
किन्तु मुस्लिम वोटबैंक का दूसरा और सबसे प्रबल दावेदार है असदुद्दीन ओवैसी। ओवैसी मुस्लिमों को यह समझाने में कामयाब हो रहे हैं कि तथाकथित सेक्युलर दल, मुस्लिमों का केवल राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने इसी रणनीति के बल पर बिहार में खासी सफलता पाई है, अब वे बंगाल में ममता के लिए सरदर्द बने हैं। यह तय है कि वे अखिलेश की मुश्किलें बढ़ाएंगे। अखिलेश मंदिरों की परिक्रमा करके स्वयं को हिन्दू दिखाने की जितनी कोशिश करें, ओवैसी के लिए उन्हें निशाना बनाना उतना आसान होगा। ऐसे में अखिलेश की मंदिर परिक्रमा की राजनीति उन्हें फायदा पहुंचाने के बजाए नुकसान ही करेगी, यह केवल ओवैसी के हाथ मजबूत करेगी। इससे मुस्लिम वोटबैंक में बंटवारा होगा जिसका लाभ भाजपा को मिलेगा।