वो तो बच्ची है, वो प्रेग्नेंट है, वो तो बेचारा handicap है, अरे वो तो बेचारा बुजुर्ग है: जब-जब किसी भी देश विरोधी या नक्सल सोच रखने वाले अपराधी पर सरकार द्वारा कार्रवाई की जाती है, तब-तब देश की लिबरल गैंग अक्सर ऐसे ही बेतुके आधारहीन लॉजिक के साथ अपने पक्ष को मजबूत करने का प्रयास करती है।
उदाहरण के लिए हालिया में दिशा रवि के केस को ही देख लीजिये! कुछ दिशा के उम्र के लिहाज से उसकी गिरफ़्तारी को अत्याचारी बता रहे हैं, तो कोई दिशा को वीगन बता रहा, कोई उसे सिंगल मदर के कारण छोड़ने की दुहाई दे रहा है। मतलब कारण चाहे जो हो, पर चूंकि दिशा रवि पर्यावरणवादी है, इसलिए वह गुनहगार नहीं है। दिल्ली पुलिस ने सबूत सहित सिद्ध किया है कि कैसे दिशा रवि, निकिता जैकॉब ने मो धालीवाल जैसे खालिस्तानियों के साथ मिलकर रिपब्लिक डे से पहले कई मीटिंग्स की थी, जिसका उद्देश्य स्पष्ट था – ‘किसान आंदोलन’ के नाम पर भारत में अशान्ति फैलाना। जांच पड़ताल में कई ऐसे साक्ष्य मिले हैं, जिनसे दिशा रवि और निकिता जैकॉब जैसों के ऊपर संदेह और गहरा हो गया है। परन्तु इन वामपंथियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्हें बस इस बात से फर्क पड़ता है कि वह 21 साल की मासूम है और वह एक पशु प्रेमी भी है।
इसी प्रकार CAA दंगों में हिंसा भड़काने के आरोप में UAPA के तहत अरेस्ट की गयी सफ़ूरा जरगर के मामले में भी यही देखने को मिला था। देश की लिबरल मीडिया से लेकर वैश्विक मीडिया तक में बार-बार इस बात को प्रकाशित किया गया था कि कैसे सफ़ूरा को “प्रेग्नेंट” होने के बावजूद जेल में रखा जा रहा है, मानो प्रेग्नेंट महिला कोई जुर्म कर ही नहीं सकती है।
एल्गर परिषद मामले में UAPA के तहत पकड़े गए वरावरा राव के मामले में लिबरल इस दलील के साथ सामने आए कि चूंकि उनकी उम्र 81 साल है, इसलिए उन्हें कम सज़ा मिलनी चाहिए। इन्दिरा जयसिंह वकील उनकी उम्र और उनके खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर कई बार कोर्ट में उन्हें बेल देने की वकालत कर चुके हैं। एक बार तो उन्होंने कोर्ट में यह दलील तक दे डाली थी कि अनुच्छेद 121 के तहत उनका जेल में रहना उनके स्वास्थ्य के अधिकार का उल्लंघन है। इसी के साथ उन्होंने बयान दिया था “80 से ऊपर के किसी भी शख्स को जेल में नहीं रखना चाहिए। एक 80 वर्षीय के लिए उम्र कैद की सज़ा बेहद अमानवीय होगी।”
इसी प्रकार वर्ष 2014 में धरे गए DU के प्रोफेसर GN साईबाबा को जब वर्ष 2017 में दोषी पाया गया था, तो लिबरलों ने उनके अपाहिज होने की दलील देकर उनकी सज़ा को कम कराने का प्रयास किया था। हालांकि, तब कोर्ट ने लिबरलों की उन दलीलों की धज्जियां उड़ा दी थी। कोर्ट ने कहा था “उनके अपाहिज होने का अर्थ ये नहीं कि उनपर दया की जाएगी। प्रोफेसर दिमागी तौर पर एकदम फिट हैं और वे कई माओवादी संगठनों के साथ मिलकर देश-विरोधी घटनाओं को अंजाम दे रहे थे”।
लिबरल गैंग का लॉजिक ये है कि तथ्यों को परे रखकर सिर्फ इस आधार पर दोषियों को बरी कर देना चाहिए, क्योंकि या तो वो बहुत ज़्यादा बूढ़े हैं, या फिर वो बहुत छोटे हैं। हालांकि, यही लिबरल गैंग 18 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग के भारत-विरोधी बयानों को खूब तवज्जो देकर उसका महिमामंडन करने का प्रयास करती है। लेकिन जैसे ही भारत में कोई ग्रेटा के खिलाफ बोलता है तो तुरंत यह गैंग उसे “18 वर्षीय बच्ची पर अत्याचार करने वाले असंवेदनशील व्यक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश करती है। जब तथ्य आपके साथ ना हो, लॉजिक में विश्वास ना रखकर आपकी आँखों के सामने विचारधारा और एजेंडा की पट्टी बंधी हो, तो अक्सर यही दलीलें देखने को मिलती हैं।