निजी बैंकों को व्यवसाय देकर सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण की ओर अहम कदम बढ़ा रही है केंद्र सरकार

बैंकों के हालात सुधारेगी सरकार

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बैंकिंग सेक्टर में प्राइवेट बैंको को बढ़ावा देने के इरादे से मोदी सरकार ने एक बड़ा फैसला किया है। सरकार ने प्राइवेट बैंकों को सरकार से जुड़ी आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने की अनुमति दे दी है। सरकार बैंकिंग सेक्टर की सबसे बड़ी क्लाइंट है, सरकार का सालाना बैंकिंग लेनदेन 56 लाख करोड़ रूपये होता है। ऐसे में प्राइवेट बैंक अगर इस लेनदेन में सहयोग करेंगे तो उन्हें भी बढ़ने का मौका मिलेगा।

निर्मला सीतारमण ने ट्वीट करते हुए लिखा “सरकार के व्यापार में प्राइवेट बैंकों के सम्मिलित होने पर लगा प्रतिबंध हटा लिया गया है। प्राइवेट बैंक भी अब भारत के आर्थिक विकास में बराबर के भागीदार हो सकेंगे, सरकार की सार्वजनिक सेवाओं को बढ़ा सकेंगे और ग्राहकों की सहूलियत को भी बढाएंगे।”

सरकार से जुडने का तात्पर्य उन बैंकिंग गतिविधियों से है जिनमें सरकार की प्रत्यक्ष भागीदारी है, जैसे टैक्स का भुगतान, पेंशन, बचत से जुड़ी छोटी योजनाएं आदि सरकारी कामों में प्राइवेट बैंक भी भागीदारी करेंगे। प्रेस विज्ञप्ति में वित्त मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि “हम प्रतिबंध हटा रहे हैं, अब RBI पर प्राइवेट बैंकों को सरकारी व्यापार में सम्मिलित होने से रोकने का दबाव नहीं है। सरकारी व्यापार में सरकारी संस्थाओं के कार्य भी शामिल हैं।

पिछले कुछ वर्षों में मोदी सरकार लगातार प्रयासरत रही है कि बैंकिंग में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी बढ़ाई जाए। इसके लिए सरकार ने बैंकिंग सेक्टर के विस्तार पर तो जोर दिया ही है, साथ ही खराब प्रदर्शन कर रहे सरकारी बैंकों का निजीकरण भी किया है।

सरकार ने पहले भारत के बैंकिंग सेक्टर में सरकारी बैंकों को पुर्नजीवित करने का प्रयास किया, लेकिन उसे थोड़ी ही सफलता मिली। इसी कारण अब सरकार का जोर प्राइवेट बैंकों को बढ़ावा देने में है।

भारत का बैंकिंग सेक्टर उसके आर्थिक विकास की गति को धीमा कर रहा है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि भारत में 70 फीसदी बैंकिंग गतिविधियां, सरकारी बैंकों के अधीन हैं। यह स्थिति पिछले 50 वर्षों से है, जब से इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था।

भारत की अर्थव्यवस्था के आकार के हिसाब से भारत का बैंकिंग सेक्टर बहुत छोटा है जो बताता है कि अधिकांश लोग बैंकिंग सेक्टर में भागीदारी नहीं कर रहे। भले ही जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा खाताधारक हो चुका है, लेकिन वास्तविकता में आर्थिक लेनदेन के लिए बैंकों का इस्तेमाल नहीं हो रहा है.

आर्थिक सर्वे बताता है कि भारत का एकमात्र बैंक जो विश्व के सबसे बड़े बैंकों में जगह बना पाया,वह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया है. SBI भी 55वें नम्बर पर है, जबकि अन्य कोई भारतीय बैंक शुरू के 100 बैंकों में अपनी जगह नहीं बना सका है. भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, इसके बावजूद एक भी भारतीय बैंक टॉप 10 में शामिल नहीं है, जो बताता है कि भारत का बैंकिंग सेक्टर कितना पीछे है.

लोगों का बैंकिंग लेनदेन में रुझान कम होने का सबसे बड़ा कारण सरकारी बैंकों की कार्यप्रणाली है. सरकारी बैंक, जिनका भारत की बैंकिंग प्रणाली में प्रभुत्व है, अपनी अकर्मण्यता, लेटलतीफी के लिए जाने जाते हैं। सरकारी बैंक के कर्मचारियों के साथ अधिकांश उपभोक्ताओं का अनुभव अच्छा नहीं होता। इसका एक कारण सरकारी बैंकों पर अत्याधिक दबाव भी है।

सरकार ने यह कदम देर से लिया है, किंतु फिर भी यह बहुत साहसिक कदम है। भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण को देश की आजादी की तरह महत्वपूर्ण बना दिया गया है। नेहरू और इंदिरा गांधी के समय जो समाजवादी आर्थिक चिंतन भारत पर लादा गया, उसका दबाव आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था में महसूस होता है। किंतु मोदी सरकार लगातार ऐसे फैसले कर रही है जो इस समाजवादी आर्थिक चिंतन की नींव पर चोट कर रहे हैं। प्राइवेट बैंकों को बढ़ावा भी ऐसा ही एक कदम है। प्राइवेट बैंकों को सरकार की बैंकिंग गतिविधियों में हिस्सा देकर, सरकार उन्हें फैलाने का अवसर दे रही है, जो अंततः भारत के आर्थिक विकास के लिए लाभकारी सिद्ध होगा।

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