नेपाल की राजनीति में उथल-पुथल मचाने में चीन का बड़ा हाथ है, ये बात किसी से नहीं छिपी है। संसद भंग होने के साथ ही नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी में दो धड़े बन चुके हैं। एक प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का है, तो दूसरा नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल प्रचंड का। ऐसे में अब चीन को सांकेतिक झटका देने के लिए प्रचंड ने अपनी पार्टी के नाम के आगे से ‘माओ सेंटर’ हटा दिया है, इस फैसले के पीछे कारण दिया गया है कि पार्टी नेपाली जनता को ज्यादा से ज्यादा जोड़ना चाहती है, जिसमें माओ नाम एक बड़ी रुकावट है। हालांकि, प्रचंड द्वारा पार्टी का नाम बदलने का ये फैसला चीन के लिए एक बड़े झटके की तरह ही है।
माओ की बात करें तो उसका इतिहास चीन से जुड़ा है, जिसे एक तानाशाह के रूप में याद किया जाता है। माओ ने चीन में क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए अपने ही देश के नागरिकों पर अनेकों तरह के प्रतिबंध लगाने के साथ-साथ उन पर घोर अत्याचार किए थे। ऐसे में चीन के लोग तो तानाशाही शासन के कारण उसे सम्मान देते हैं लेकिन असल बात यही है कि माओ की विचारधारा किसी भी देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। ऐसे में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी किसी भी कीमत पर ये नहीं चाहती है कि उसका चीन से किसी भी प्रकार का जुड़ाव प्रदर्शित हो। इसीलिए अब पार्टी के प्रमुख पुष्प कमल दल प्रचंड ने पार्टी के नाम तक में परिवर्तन करने का ऐलान कर दिया है, और पार्टी के नाम से ‘माओं सेंटर’ शब्द हटा दिया है।
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इस मुद्दे पर पार्टी के नेता शिवकुमार मंडल ने कहा है कि वो लोग जो माओ से नफरत करते थे, वो हमारी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ नहीं जुड़ते थे, जिससे पार्टी सीमित दायरे में बंधी हुई रहती थी, लेकिन अब कम्युनिस्ट पार्टी एक होकर काम कर सकेगी और ज्यादा से ज्यादा लोग इससे जुड़े सकेंगे। उन्होंने कहा कि अब माओ शब्द के हटने के बाद पार्टी का प्रसार तेजी से होगा। बता दें कि केपी शर्मा ओली और प्रचंड दोनों को ही अब सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद अपनी पार्टी के लिए अलग नाम प्रयोग करने होंगे, साथ ही उन्हें एक नया चुनाव चिन्ह भी तय करना होगा।
शिवकुमार मंडल ने इस पूरे फैसले के पीछे पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड की सोच बताई है। उन्होंने कहा, “पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड सदैव ही देश की सभी कम्युनिस्ट शक्तियों के बीच एकजुटता के पक्ष में रहे हैं और सुझाव दिया कि यदि पार्टी के नाम से ‘माओवादी केंद्र’ हटाने से इन शक्तियों को एकजुट होने में मदद मिल सकती है तो पार्टी उसके लिए तैयार है।” साफ है कि अब प्रचंड की मंशाएं चीन से मुंह फेरने की हैं।
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माओ को लेकर चीन में सकारात्मक माहौल है, और प्रचंड का माओ के नाम को पार्टी के नाम से अलग करना दिखाता है कि अब प्रचंड चीन की कोई भी निशानी या पहचान अपने साथ लेकर नहीं चलना चाहते हैं। पिछले एक साल में चीन ने अपनी राजदूत हू यांकी के जरिए नेपाल में जो राजनीतिक पकड़ बनाने की कोशिश की, उसका नतीजा ये हुआ कि अब पार्टी प्रचंड और ओली के दो गुटों में टूट चुकी है। ऐसे में चीन के दखल के बावजूद दोनों के बीच सुलह को लेकर बात नहीं बनी है। इसका नतीजा ये है कि ओली और प्रचंड दोनों ही खुद को चीन का करीबी नहीं दिखाना चाहते हैं, जिसकी एक बड़ी वजह जनता भी है।
चीन के प्रति नेपाल की जनता में भी गुस्सा है, जिस तरह से चीन ने नेपाल के लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाया है, वो नेपाल के लोगों को चीन के प्रति आक्रोशित कर रहा है। प्रचंड जनता के मन की बात को समझ चुके हैं। इसीलिए उन्होंने अपनी पार्टी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से ‘माओ सेंटर’ को हटा दिया है जो कि सीधे-सीधे चीन का विरोध दिखाता है, और नेपाल की प्रमुख राजनीतिक पार्टी का चीन से इस हद तक नफरत करना चीन के लिए किसी नए झटके से कम नहीं है।