अशोक यूनिवर्सिटी से इस्तीफ़े के बाद प्रताप भानु मेहता और उनके समर्थक मोम की तरह पिघल गए

लिबरलों की हाय-हाय फिर शुरू!

प्रताप भानु मेहता

भारत में अच्छे शैक्षिक संस्थानों की पहले से ही कमी थी और जो सरकारी शैक्षिक संस्थान मौजूद हैं भी, उनको वामपंथियो ने दीमक की तरह धीरे-धीरे बर्बाद कर दिया है। आज वामपंथियों के कारण भारत की मुख्य यूनिवर्सिटीज़ शिक्षा से ज़्यादा लिबरल एजेंडे की गढ़ बन चुकी है। ऐसा ही एक उदाहरण है सोनीपत में स्थित अशोका विश्वविद्यालय, जहां से हाल ही में दो वामपंथी प्रोफेसरों को विश्वविद्यालय में लिबरल एजेंडा फैलाने के लिए बाहर का रास्ता दिखाया गया है।

बता दें कि उपर्युक्त दो वामपंथी प्रोफेसरों का नाम प्रताप भानु मेहता और अरविंद सुब्रमण्यन है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, दोनों ने अपने पद से इस्तीफा दिया है, और उसके पीछे का कारण बताया है कि उनकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के ऊपर अंकुश लगाया जा रहा था। जब इस मामले ने तूल पकड़ लिया तो प्रोफेसर मेहता ने अपनी सफाई देने हेतु अपना पत्र सामने रखा जिसमें उन्होंने लिखा, “संस्थापकों के साथ एक बैठक के बाद, यह मुझे स्पष्ट हो गया है कि विश्वविद्यालय के साथ मेरा जुड़ाव एक राजनीतिक दायित्व माना जा रहा है। स्वतंत्रता के संवैधानिक मूल्यों और सभी नागरिकों के लिए समान सम्मान का प्रयास करने वाली राजनीति के समर्थन में मेरा सार्वजनिक लेखन, विश्वविद्यालय के लिए जोखिम उठाने समान माना गया है।”

वामपंथी समुदाय में चोट एक को लगती है, और दर्द सबको होता है, और इस बार भी कुछ अलग नहीं था। देश के लगभग सारे वामपंथी पत्रकार और कथित बुद्धिजीवियों ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की। सबसे पहले बात करेंगे सागरिका घोष की, घोष ने अपने एक ट्वीट में कहा,“#AshokaUniversity में चौंकाने वाला घटनाक्रम। बहस, असंतोष और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता विश्वविद्यालय परिसरों की आम दिनचर्या का हिस्सा होनी चाहिए। यह विचारों की मुक्त खोज है जो शिक्षा को सार्थक बनाती है।”

ऐसे मौके पर प्रशांत भूषण भला कैसे पीछे रहते। भूषण ने अपने ट्वीट्स के ज़रिये कहा, “यदि आप यहां अध्ययन करना चाहते हैं तो अपनी Activism को कैद कर लें! #अशोकविविधता।”

उसके बाद तो मानो ट्विटर पर वामपंथियो की भीड़ उमड़ पड़ी, जिसमें रामचंद्रा गुहा भी शामिल थे। उन्होंने कहा, “अब तक की यात्रा में अशोक यूनिवर्सिटी का रुख बेहद सकारात्मक रहा था। अब वे शायद अपने trustees के झुकने की वजह से सरकार के दबाव में रेंगने लगे हैं।”

राहुल गांधी के बेहद करीबी मानें जाने वाले कौशिक बसु ने अपने ट्वीट में कहा, “प्रताप भानु मेहता और अरविंद सुब्रमण्यन ने अशोक विश्वविद्यालय छोड़ने का दुखद समाचार दिया है। आलोचनात्मक लोग सबसे अच्छे एवं जुझारू होते हैं। अगर हम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते, तो हम रचनात्मकता को नुकसान पहुंचाते हैं। आखिर में हार देश और उसके आर्थिक विकास की ही होगी। दुनिया भर में इसके पर्याप्त उदाहरण हैं।”

रघुराम राजन भी भारत की संस्थाओं को नीचा दिखाने में भला कैसे पीछे रहते। उन्होंने अपने Linkedln एकाउंट पर लिखा, “अशोक के संस्थापकों ने एक परेशान आलोचक से छुटकारा पाने के लिए बाहरी दबाव के आगे घुटने टेक दिए हैं।” राजन ने आगे कहा, “वास्तविकता यह है कि प्रोफेसर मेहता सरकार के लिए एक कांटा हैं। वह कोई साधारण कांटा नहीं है क्योंकि वह सरकार और सर्वोच्च न्यायालय जैसे उच्च कार्यालयों में ज्वलंत सोच के साथ मुद्दों को उठाते रहे हैं।”

खुद को कथित किसान, बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री और न जाने क्या क्या मानने वाले योगेंद्र यादव ने भी इस मुद्दे पर टिप्पणी करते हुए कहा, “प्रताप मेहता ने भारत में आम जनता के बीच चर्चा के स्तर को ऊपर उठाया है। उनके मध्य-सेमेस्टर इस्तीफ़े से पता चलता है कि हमने विचारों के दमन के अगले चरण में प्रवेश कर लिया है और अब यहाँ असहमति जताने वालों के लिए “सुरक्षित जगह” नहीं है, निजी university में भी नहीं! अब अगला निशाना कौन और कब?

मेहता अपने बाकी वामपंथी साथियों की तरह अशोका विश्वविद्यालय में वामपंथ फैलाने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे, लेकिन वर्ष 2019 में भाजपा की जीत से उन्हें बहुत सदमा लगा था। उसके उपरांत मेहता ने जुलाई 2019 में मोदी सरकार के एक बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आ जाने के कुछ महीनों बाद ही कुलपति के पद से इस्तीफा दे दिया था।

वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव से पहले प्रताप भानु मेहता ने एक बयान दिया था जिसके मुताबिक, “पिछले पांच वर्षों में भारतीय आत्मा का उत्परिवर्तन हुआ है।” मेहता ने आगे कहा था “वे हर उस चीज़ के लिए खड़े होते हैं, जो गैर-भारतीय हैं और हर उस वादे के खिलाफ हैं जो इस लोकतंत्र ने अपने प्रत्येक नागरिक के साथ किया था।”

मेहता की बातों से साफ हो रहा है कि उनकी समस्या विश्वविद्यालय से ज्यादा दिल्ली में बैठी नरेंद्र मोदी की सरकार से है। मेहता ने शुरुआत से ही मोदी सरकार के खिलाफ अपने विचार प्रकट किए हैं और वो अशोका विश्वविद्यालय के संस्थापकों से भी ऐसे ही उम्मीद कर रहे थे लेकिन उन्होंने मेहता की एक न सुनी। इसका नतीजा यह हुआ कि विश्वविद्यालय से मेहता और अरविंद को बाहर का रास्ता दिखाया गया है। विश्वविद्यालय से निकाले जाने के बाद मेहता अपने वामपंथी साथियों के साथ मिलकर अशोका विश्वविद्यालय को बदनाम करने के कोशिश में लगे हुए हैं।

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