हाल ही में शिक्षाविद प्रताप भानु मेहता ने अशोका विश्वविद्यालय से अपना इस्तीफा दे दिया है। 15 मार्च को सबमिट किये गए अपने त्यागपत्र में प्रताप ने कहा कि वह विश्वविद्यालय के लिए एक राजनीतिक बोझ नहीं बनना चाहते। प्रताप के साथ साथ एक सहायक प्रोफेसर अरविन्द सुब्रह्मण्यम ने भी इस्तीफा दिया है।
लेकिन प्रताप भानु मेहता को इस्तीफा देने के लिए बाध्य क्यों होना पड़ा? कुछ लोगों का कहना है कि केंद्र सरकार के दबाव के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, तो कुछ लोगों का मानना है कि हरियाणा के वर्तमान आरक्षण नीति की आलोचना करने के कारण इस्तीफा देना पड़ा। आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने इस विषय पर कहा कि अशोका विश्वविद्यालय ने प्रताप भानु मेहता को इस्तीफा देने के लिए बाध्य कर अपनी आत्मा बेच दी है।
परंतु सच्चाई इन दलीलों के ठीक उलट है। प्रताप भानु मेहता ने इस्तीफा नहीं दिया है, बल्कि अपने ऊपर होने वाली संभावित कार्रवाई के भय से वे मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रताप भानु मेहता ने पिछले कुछ वर्षों में सरकार के विरोध के नाम पर जिन असामाजिक तत्वों को बढ़ावा दिया है, और जिस प्रकार से उसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि खराब करने का प्रयास किया है, उसके लिए वे संभावित तौर पर सरकार की कार्रवाई झेल सकते थे। स्वयं विश्वविद्यालय के संस्थापक उसके इस रवैये से काफी नाराज रहे हैं।
ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रताप भानु मेहता कहने को अशोका विश्वविद्यालय के कुलपति थे, लेकिन उनका दिमाग मोदी सरकार की आलोचना करने और भारत विरोधी तत्वों को बढ़ावा देने में अधिक था। CAA के विरोध से लेकर कृषि कानूनों के नाम पर अराजकतावादियों को बढ़ावा देने तक, प्रताप भानु मेहता ने अपनी जिम्मेदारियों से अधिकतर समय मुंह ही मोड़ा है।
लेकिन यही एक कारण नहीं जिसके पीछे प्रताप मेहता को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी हो। हाल ही में स्वीडिश संस्था वी डेम की जिस भ्रामक रिपोर्ट के पीछे भारत को नीचा दिखाने का प्रयास किया गया था, उस रिपोर्ट के लिए जिन लोगों से सलाह ली गई, और जिस आधार पर ये भ्रामक रिपोर्ट तैयार की गई, उसमें प्रताप भानु मेहता भी शामिल थे।
जिस एड्वाइज़री बोर्ड के सुझावों और तथ्यों के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गई, उसमें केवल दो भारतीय थे – प्रताप भानु मेहता और JNU में प्रोफेसर नीरजा गोपाल जयल। दोनों ही मोदी सरकार के धुर विरोधी हैं, और रिपोर्ट पर नज़र डालने से पता चलता है कि किस प्रकार से CAA के विरोध के नाम पर भारत को लोकतान्त्रिक देश मानने से ही ये संस्था इनकार कर रही थी। लेकिन जैसे ही ये बात सामने आई, तुरंत ही प्रताप और नीरजा का नाम एड्वाइज़री बोर्ड से हटा दिया गया।
इसके अलावा सुब्रह्मण्यम जयशंकर ने अपने रुख से भी यह स्पष्ट किया कि वे ऐसे स्वघोषित एनजीओ और उनके सदस्यों को भारत की छवि खराब नहीं करने देंगे।ऐसे में अपने ऊपर संभावित कार्रवाई के भय से प्रताप भानु मेहता ने अशोका विश्वविद्यालय की कुर्सी छोड़ी है। वे न तो कोई फ्री स्पीच के रक्षक हैं, जैसा कि वामपंथी जताना चाहते हैं, और न ही कोई देशसेवक और अब कार्रवाई के भय से कायरों की तरह मैदान छोड़कर भाग रहा है।