मूर्ख लिबरल नहीं चाहते थे कि SC कोरोना को प्राथमिकता दे, SC ने स्वीकारा तो फिर विरोध में उतरे लिबरल

कोरोना तो बहाना है, सुप्रीम कोर्ट निशाना है!

कोरोना

देश के कुछ प्रतिष्ठित वकीलों ने माननीय सुप्रीम कोर्ट के विरुद्ध प्रचार अभियान चला रखा है। दो दिन पूर्व माननीय उच्चतम न्यायालय ने ऑक्सीजन की कमी तथा कोरोना से लड़ने में हो रहे कुप्रबंधन को लेकर सुओ मोटो जारी किया था। देश के 6 उच्च न्यायालय में चल रहे अलग-अलग मामलों का कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया और केंद्र सरकार को दिशानिर्देश जारी किया कि वह कोरोना से लड़ने के लिए एक एकीकृत राष्ट्रीय योजना अगले सप्ताह तक उच्चतम न्यायालय के सामने प्रस्तुत करे।

किन्तु उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में अलग-अलग चल रहे मामलों पर स्टे नहीं लगाया और न ही उनकी विधिक कार्रवाई में हस्तक्षेप किया। हालांकि, कोर्ट ने इतना अवश्य कहा कि अलग-अलग उच्च न्यायालयों में चल रहे मामले, भ्रम की स्थिति पैदा कर रहे हैं। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि “यह भ्रम की स्थिति संसाधनों के विचलन का कारण बन रहा है।“ इसलिए कोर्ट ने केंद्र को एक राष्ट्रीय योजना बनाकर उसके समक्ष आने का आदेश दिया है।

जैसे ही, उच्चतम न्यायालय ने अपना आदेश जारी किया, इंदिरा जयसिंह, दुष्यंत दवे, विवेक तंखा, अभिषेक मनु सिंघवी जैसे कुछ वरिष्ठ वकील इसे गलत बताने लगेदुष्यंत दवे ने कहा, “उच्चतम न्यायालय द्वारा सुओ मोटो के जरिये हस्तक्षेप कर हाई कोर्ट को उनके संवैधानिक अधिकारों का अनुपालन करने से रोकना पूर्णतः अनावश्यक और अनुचित है।” उन्होंने कहा कि“सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप करना इसलिए गलत है, क्योंकि वह पिछले कई महीनों से मौन दर्शक की भूमिका में रहा है। कोर्ट को लोगों के जीवन की इतनी चिंता थी तो उसे पहले ही हस्तक्षेप करना चाहिए।“ उन्होंने कहा,“सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों सो रहे थे।“

यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि केंद्र ने जनवरी में ही महाराष्ट्र, केरल सहित उन सभी राज्यों को चेतावनी जारी की थी कि वह अपने यहां बढ़ते कोरोना के मामलों को रोकने का उपाय करें। स्वास्थ राज्य सरकार का विषय है, केंद्र इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता, केवल सर्कुलर जारी कर सकता है और आवश्यक मदद दे सकता है। राज्यों द्वारा केंद्र की चेतावनी को नजरअंदाज करना एक भारी भूल थी जिसका नतीजा आज कोरोना की दूसरी लहर में सामने आया है।

रही बात सुप्रीम कोर्ट की, तो वह पहले ही किसान आंदोलन जैसे अनावश्यक विवादों को सुलझाता रह गया। यदि सुप्रीम कोर्ट पर सोते रहने का आरोप लगाया जाए तो प्रश्न उठता है कि कोरोना के प्रकोप के बढ़ने से पूर्व हाई कोर्ट कौन सा सजग प्रहरी बनी हुई थी। मुसीबत जब सामने आई तब ही हाई कोर्ट ने हस्तक्षेप किया। वैसे भी न्यायपालिका हर समय कार्यपालिका की निगरानी करने के लिए नहीं बनी है।कांग्रेस ने भी इस फैसले की आलोचना की। वैसे यह कोई संयोग नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकील और कांग्रेस पार्टी अक्सर एक ही मंच पर दिखते हैं, विशेषतः जब उच्चतम न्यायालय को निशाना बनाना हो।

दुष्यंत दवे के अलावा सिंघवी ने भी यही बात दोहराई की जब हाई कोर्ट मामले की सुनवाई कर रहा था तो सुप्रीम कोर्ट को बीच मे पड़ने की क्या आवश्यकता थी और हाई कोर्ट को उसका कार्य क्यों नहीं करने दिया गया। किन्तु सत्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने न तो किसी मामले की सुनवाई पर रोक लगाई है, न केस को हस्तान्तरित किया है। उसने केवल संज्ञान लिया है और केंद्र से जवाब मांगा है। वैसे भी स्वास्थ की लचर व्यवस्था राज्य की जिम्मेदारी है, जिसकी निगरानी उच्च न्यायालय बेहतर कर सकते हैं। किन्तु जब बात राष्ट्रीय योजना की आएगी तो उसका निर्माण केंद्र और निगरानी उच्चतम न्यायालय की होगी।

ऐसा नहीं है कि इंदिरा जयसिंह, दवे आदि वरिष्ठ वकील इतनी सामान्य बात नहीं समझ सकते। इनका उद्देश्य उच्चतम न्यायालय की छवि धूमिल करना है।

सुप्रीम कोर्ट ने इसी मामले में हरीश साल्वे को ‘Amicus Curiae’ नियुक्त किया। Amicus Curiae किसी मामले में कोर्ट को आवश्यक सूचनाएं और तथ्यों की जानकारी देते हैं, सलाहकार की तरह काम करते हैं। साल्वे को उनकी काबिलियत के कारण यह पद मिला था, लेकिन इन्हीं वकीलों ने आरोप लगाया कि पूर्व चीफ जस्टिस अरविंद बोबड़े से मित्रता के कारण साल्वे को यह पद मिला। यह हास्यास्पद है कि कोई व्यक्ति हरीश साल्वे की काबिलियत पर शक करे। बाद में साल्वे ने इस पद को लेने से इनकार कर दिया क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि उन्हें अनावश्यक ही निशाना बनाया जाए।

पहले सुप्रीम कोर्ट के सुओ मोटो की आलोचना हुई, जब कोर्ट ने एक स्पष्टीकरण दिया तो भी यह दुष्प्रचार नहीं रुका। कोर्ट ने सरकार को एक सप्ताह का समय दिया तो यही जमात विरोध करते हुए प्रश्न कहने लगी की कोर्ट ने कार्रवाई एक सप्ताह क्यों टाल दी है, कोर्ट को लोगों की जान की चिंता नहीं। अब इसे मूर्खता कहें या धूर्तता, कोई सामान्य बुद्धि का आदमी भी समझ सकता है कि कोरोना के विरुद्ध, राष्ट्रीय योजना का प्रारूप, कोर्ट के सामने प्रस्तुत करने में कम से कम एक सप्ताह तो लगेगा ही।

देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों और वकीलों का टकराव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले कुछ सालों में कोर्ट ने कई ऐसे फैसले दिए हैं जो लेफ्ट लिबरल जमात को पसंद नहीं आए। फिर वो राममंदिर का फैसला हो, जमिया की हिंसा पर वक्तव्य हो या शाहीनबाग प्रकरण में निर्णय। इन लोगों को सुप्रीम कोर्ट से तब दिक्कत नहीं होती जब फैसला इनके पक्ष में जाता है, लेकिन जैसे ही कोई बात इनके खिलाफ होती है ये लोग दुष्प्रचार अभियान में जुट जाते हैं।

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