अयोध्या विवाद में फैसला आने के बाद अब काशी की ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर चर्चा तेज हो गई है। वाराणसी की स्थानीय अदालत ने हिन्दू पक्ष में फैसला सुनाते हुए ASI को मस्जिद की जाँच के आदेश दिए हैं। ASI के लिए मंदिर के साक्ष्य खोजना कोई बड़ी बात नहीं होगी, क्योंकि काशी की ज्ञानवापी मस्जिद के पिछले हिस्से को देखकर कोई आम आदमी भी बता सकता है कि यह मस्जिद किसी मंदिर को ध्वस्त करके बनाई गई थी। राममंदिर और काशी विश्वनाथ, दोनों मंदिरों की लड़ाई, हिन्दू पक्ष के लिए दो अलग कहानियां बन सकती हैं।
राममंदिर, हिन्दू आस्था का केंद्र ही नहीं, उस महान संघर्ष का प्रत्यक्ष उदाहरण है, जो सनातनियों ने मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध लड़ा और अंततोगत्वा आतताईयों को पराजित कर संघर्ष में विजयी हुए। भारत के आक्रमण के समय बाबर के आदेश पर राममंदिर को ध्वंस कर वहाँ बाबरी मस्जिद बनाई गई। हालांकि ASI को मंदिर ध्वंस के पुरातात्विक प्रमाण स्पष्ट नहीं दिखे थे, किंतु ASI की रिपोर्ट बताती है कि जहाँ बाबरी मस्जिद का ढांचा था, वहाँ पूर्व में कोई हिन्दू मंदिर था। ASI द्वारा यह प्रमाण देना की मंदिर के ढांचे के ऊपर ही मस्जिद बनाई गई थी, स्वतः सिद्ध करता है कि बाबर के सेनापति मीर बाकी ने राम के मंदिर को तोड़कर ही मस्जिद बनाई थी।
ASI ने जब राममंदिर पर काम शुरू किया तो मंदिर तोड़े जाने के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले, और मंदिर की ऐतिहासिकता सिद्ध करने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता थी। लेकिन जब तक ASI अपनी रिपोर्ट देता भारत के वामपंथी उदारवादी धड़े के इतिहासकारों ने यह भ्रम फैलाना शुरू कर दिया कि राममंदिर जैसा कोई स्थल अयोध्या में था ही नहीं। इरफान हबीब, डी० एन० झा, रोमिलाथापर आदि ने यह राग अलापना शुरू कर दिया कि मंदिर का कोई प्रमाण वहाँ नहीं है।
मंदिर अवशेषों की जाँच के लिए कार्य कर रही ASI की टीम के एक सदस्य और बाद में ASI के उत्तर भारत के रीजनल डायरेक्टर KK मुहम्मद ने अपनी पुस्तक में बताया कि मंदिर अवशेष 1976 में ही मिल गए थे। मुहम्मद ने बताया कि जैसे ही मंदिर के प्रमाण मिलने शुरू हुए वामपंथी इतिहासकारों की ओर से प्रोपोगेंडा शुरू हो गया। ऐतिहासिक अन्वेषण से जुड़े ICHR के तात्कालिक अध्यक्ष वामपंथी इतिहासकार इरफान हबीब के नेतृत्व में यह प्रचार किया जाने लगा कि मंदिर का कोई साहित्यिक प्रमाण नहीं है।
के के मुहम्मद का मानना है कि इरफान हबीब, रोमिलाथापर, बिपिन चन्द्र जैसे तथाकथित इतिहासकारों के दुष्प्रचार ने कट्टरपंथी मुसलमानों को बल दिया, जिससे मंदिर विवाद और उलझ गया। अगर वामपंथी इतिहासकार ऐसा नहीं करते तो शायद मंदिर विवाद बिना दंगे फसाद के ही किसी निष्कर्ष तक पहुंच जाता।
आज जब ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर ASI की जांच शुरू होने वाली है तो यह उम्मीद की जा सकती है कि हिन्दू पक्ष को इस बार न्याय जल्दी मिल सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि ज्ञानवापी के स्थान पर मंदिर होने के स्पष्ट पुरातात्विक प्रमाण तो हैं ही, साहित्यिक प्रमाण भी मिलते हैं। मस्जिद के पिछले हिस्से का ढांचा मंदिर का है, काशी विश्वनाथ परिसर में स्थापित नन्दी का मुख ज्ञानवापी की ओर है, जो बताता है कि असली शिवलिंग वर्तमान के काशी विश्वनाथ की जगह, ज्ञानवापी परिसर में कहीं स्थापित था।
साहित्यिक स्त्रोत की बात करें तो स्वयं औरंगजेब का फरमान एक साक्ष्य है, जिसमें वह काशी और मथुरा के मंदिर तोड़े जाने का आदेश देता है। छत्रपति शिवाजी राजे के दरबारी इतिहासकार लिखते हैं कि काशी में विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस के जवाब में ही राजे ने स्वराज्य का बिगुल फूंका था। मध्यकाल में मुस्लिम शासकों की यह परंपरा थी कि वह मंदिरों का विध्वंस करते और मूर्तियों को जमीन में गढ़वा देते। औरंगजेब के दरबारी इतिहासकार बताते हैं कि उसने मथुरा और काशी की मूर्तियों को तोड़वाकर आगरा के दीवान-ए-आम की सीढ़ियों में चुनवा दिया था, जिससे आने जाने वाले उनपर पैर रखकर आएं जाएं।
ज्ञानवापी पर इतने प्रमाण हैं कि हिन्दू पक्ष को कोर्ट से न्याय मिलना आसान है और वामपंथी इस बार प्रोपोगेंडा भी नहीं कर सकेंगे। किन्तु एक समस्या 1991 का worship places act,जो किसी भी मंदिर, मस्जिद अथवा अन्य ऐसे स्थलों के रूपांतरण को रोकता है। इसके अनुसार जो भी मंदिर, मस्जिद अथवा अन्य ऐसे स्थल, आजादी के समय, जिस भी समुदाय के कब्जे में थे वह उन्हीं के कब्जे में रहेंगे। ऐसे में यदि कोर्ट में यह सिद्ध भी हो जाता है कि ज्ञानवापी में मस्जिद नहीं मंदिर था, तो भी हिन्दू पक्ष को अपना मंदिर पुनः पाने के लिए Places of worship act 1991 में सुधार करवाना पड़ेगा। यह act संसद द्वारा पारित कानून है और संसद इसे निरस्त कर सकती है। अब देखना यह होगा कि भाजपा सरकार, हिन्दू आस्था का ध्यान देते हुए इसमें सुधार करेगी अथवा नहीं।