महाराष्ट्र में पालघर केस के कारण राज्य सरकार की बुरी फजीहत हुई है, इस केस के साथ शुरू हुआ उद्धव सरकार की आलोचनाओं और विपत्तियों का सिलसिला आज भी खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। पालघर में हुई साधुओं की हत्या को लेकर पहले निरंकुशता दिखाई गई, लेकिन बाद में केस दर्ज किए, गए। पुलिसिया ढुल-मुल नीति और सीआईडी की जांच का असर ये है कि आज उस घटना के एक साल हो गए हैं लेकिन उन साधुओं को न्याय के नाम पर शून्य ही मिला है। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर उन साधुओं को न्याय कब मिलेगा।
महाराष्ट्र में पिछले साल दो साधुओं आचार्य कल्पवृक्षगिरी और सुशील गिरी की भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद इस मामले में पुलिस ने अपना बचाव करने के लिए पहले कहा कि वो साधु बच्चा चोरी के चलते भीड़ का शिकार हुए थे। इस मामले में मीडिया कवरेज के चलते बाद में केस दर्ज कर भीड़ को अपराधी बनाया गया था। एक बेहद अजीब सवाल तो ये भी उठता है कि भीड़ द्वारा हत्या के दौरान जो वीडियो सामने आया था उसमें हजारों लोग थे, लेकिन सीआईडी ने केस में 201 लोगों के खिलाफ ही दर्ज की, और मामला अब कोर्ट में लंबित है।
इस मामले में अनेकों कहानियां बनाई गई बच्चा चोरी का शक, मिशनरीज का शिकार, राजनीति से प्रेरित और न जाने क्या-क्या, लेकिन आज भी इस मामले में पुलिस अपनी थ्योरी के अनुसार भी ठीक से नहीं चली है, और पुलिस की ढुलमुल जांच की नीति लोगों को आक्रोशित कर रही है। केवल इतना ही पुलिस की जांच की लापरवाही के कारण ही 201 में से 89 आरोपियों को जमानत दे दी गई है।
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आज की स्थिति की बात करें तो ये केस आज भी लंबित है। इस केस से जुड़े 75 मुख आरोपी जेल में हैं। वहीं, फ़रवरी में ही सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पुलिस से सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल करने की बात कही थी, कहने को महाराष्ट्र सरकार के अंतर्गत पुलिस इसकी जांच कर रही है, लेकिन वो जांच नहीं असल में खानापूर्ति ही है क्योंकि इस मामले में अभी तक कोई भी किसी निर्णय तक नहीं पहुंच सका है। केस आज की स्थिति में महाराष्ट्र की सीआईडी के पास हैं।
ऐसा नहीं है कि उन साधुओं को बचाया नहीं जा सकता था, इस केस में जब वीडियो सामने आया था, तब साफ देखा गया था कि दोनों साधुओं को पीटा जा रहा था पर पुलिसकर्मी तमाशा देख रहे थे। साधुओं द्वारा पुलिसकर्मी के पैर पकड़ने के बावजूद पुलिस ने कोई मदद नहीं की जो राज्य पुलिस की निरंकुशता को प्रदर्शित करता है। महाराष्ट्र सरकार ने दिखावे के बाद आंतरिक जांच के बाद पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई तो की, लेकिन क्या उससे न्याय मिला… शायद नहीं।
इस केस से जुड़े पहलुओं पर नजर डालने पर ये भी सवाल उठता है कि उस दौरान जब पूरे देश में लॉकडाउन था तो भी पालघर में इतनी भीड़ कैसे जमा हो गई? उस भीड़ ने इन दोनों साधुओं को मार डाला, और आज उनमें से अनेकों लोग जुर्म के बावजूद आजाद घूम रहे हैं, क्योंकि पुलिस ने ही इस मामले के सभी आरोपियों को नहीं पकड़ा था। साफ है कि इन साधुओं की आत्मा न्याय के लिए भटक रही है लेकिन अब क्या किसी को कुछ याद भी है, शाय़द नहीं क्योंकि इस मुद्दे पर अब बात नहीं होती।
लिंचिंग को लेकर देश की राजनीति में आए दिन बवाल मचा रहता है, अल्पसंख्यकों की लिंचिंग को लेकर छाती पीटने वाले लोग पालघर में मारे गए साधुओं के मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठे हैं। साल भर बीतने के बावजूद न्याय की शून्यता उन लोगों के मुंह पर एक करारा तमाचा भी है, जो समाज सेवा के नाम पर करने वाले आंदोलनों में केवल एक वर्ग के लोगों की आवाजों को ही बुलंद करते हैं क्योंकि ऐसा करना ही उनकी राजनीति को सूट करता है।
पालघर हिंसा पर अब शायद ही कोई बात करता है, केस अदालतों की धूल में सिमटता जा रहा है। वहीं, न्याय की उम्मीदों को खोखला करती पुलिस और महाराष्ट्र सीआईडी की जांच जेल में बंद अपराधियों को ये हौंसला देती है कि जैसे 89 लोग छोड़े गए हैं, वैसे वो भी जमानत पर निकलेंगे, लेकिन इस मुद्दे को हम सभी को याद रखने की आवश्यकता है क्योंकि पालघर में साधुओं की हत्या केवल उन पर हमला नहीं थी, बल्कि ये सनातन धर्म के खिलाफ किया गया कुकृत्य था और इस कुकृत्य का जवाब देने के लिए आवश्यक है कि जल्द से जल्द इस मामले में न्याय की ज्योति जले, वरना बीते एक साल की तरह न जाने कितने साल यूं ही बीतते जाएंगे।