नेटफ्लिक्स की सुप्रसिद्ध सीरीज़ ‘नार्कोस’ में दिखाया जाता है कि कैसे कोलंबिया के कुछ धूर्त अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीशों के कारण सरकार दुर्दांत अपराधी पाबलो एसकोबार के विरुद्ध निर्णायक अभियान चलाने में असमर्थ रहती है, और वह खुलेआम कई सुरक्षाकर्मियों को गोलियों से भून देता है। लेकिन कहीं न कहीं ये घटनाएँ अब भारत में भी दिखने लगी हैं, जहां चंद अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों के निर्णयों के कारण वरावर राव जैसे शहरी नक्सलियों को खुली छूट दी जा रही हैं, जिसका दुष्परिणाम अभी हाल ही की सुकमा त्रासदी में देखने को मिला है।
सुकमा बीजापुर में हाल ही में बीएसएफ़ और सीआरपीएफ के संयुक्त काफिले पर कायराना हमला हुआ, जिसमें 24 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे गए और 30 के लगभग सुरक्षाकर्मी घायल हुए। इस हमले में नक्सलियों को भी काफी नुकसान हुआ है, परंतु आधिकारिक तौर पर केवल 2 नक्सलियों की लाशें रिकवर हुई हैं।
तो इसका शहरी नक्सलियों से क्या संबंध है? दरअसल अभी हाल ही में नक्सली नेता वरावर राव को स्वास्थ्य कारणों से बॉम्बे हाई कोर्ट ने जमानत दे दी। लेकिन इसके प्रति महाराष्ट्र में पिछड़ों और आदिवासियों के समूह ने आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट एवं बॉम्बे हाई कोर्ट को एक पत्र लिखते हुए वरावर राव को दी गई जमानत और जमानत देने वाले न्यायाधीश के पुन: निरीक्षण की मांग की है।
यह पत्र ‘कम्युनिस्ट हिंसा पीड़ित आदिवासी दलित संघर्ष कमिटी’ की तरफ से लिखा गया जो मध्य प्रदेश के बालाघाट में स्थित है। इस पत्र के जरिए इस समिति का कहना है कि वरवारा राव को जमानत देने के फैसले से नक्सली हिंसा के शिकार दलित और आदिवासी काफी पीड़ित हैं।
पत्र के अंश अनुसार, “वरावर राव माओवादी है और देश भर में हिंसक माओवादियों का खुलेआम वकालत और समर्थन करता है। हम सभी नक्सल पीड़ित लोग आपसे दरख्वास्त करते हैं कि जज एस एस शिंदे द्वारा आज तक सुनवाई किए हुए मामलों की सर्वोच्च न्यायालय के जजों की कमिटी द्वारा जाँच हो तथा जज शिंदे द्वारा आज तक अर्जित की गई संभाव्य अवैध संपत्ति की जाँच इनकम टैक्स विभाग द्वारा करने की अनुशंसा सर्वोच्च न्यायालय करे।”
एक महीने पहले एक अप्रत्याशित निर्णय में बॉम्बे हाई कोर्ट ने 6 महीने के लिए चिकित्सा आधार पर 81 वर्षीय कवि-कार्यकर्ता और भीमा कोरेगाँव मामले के आरोपित वरवरा राव को जमानत दी थी। यह आदेश न्यायमूर्ति एसएस शिंदे और मनीष पितले की पीठ ने पारित किया था। इस बात से नक्सल हिंसा से पीड़ित दलितों और आदिवासियों का समूह काफी चिंतित है, जिन्होंने न्यायाधीश एस एस शिंदे के बैकग्राउंड की जांच करने की भी याचना की है।
लेकिन वरावर राव जैसे लोग बेधड़क कैसे अपने नापाक गतिविधियों को अंजाम दे पाते हैं? आखिर ऐसा क्या उनके पास है कि न्यायालय तक उन्हे छोड़ने को विवश हो जाती है? दरअसल इन शहरी नक्सलियों के पीछे एक पूरी प्रणाली, एक ईकोसिस्टम है, जो इन्हे हर प्रकार से संरक्षण देती है। इन्हे ऐसे प्रदर्शित किया जाता है, जैसे भगत सिंह के बाद यही देश के असली जननायक हैं।
उदाहरण के लिए विवादित लेखिका अरुंधती रॉय को ही ले लीजिए। इनके लिए जंगलों में तांडव मचाने वाले उपद्रवी नक्सली या आतंकी नहीं, बल्कि बंदूक पकड़े गाँधीवादी है। इनके लिए ये नक्सली अत्याचारी सरकार के विरुद्ध निर्दोष आदिवासियों का अपना युद्ध है, जबकि सच्चाई तो यह है कि ये नक्सली आदिवासियों को भी चैन से नहीं रहने देते।
अब जब सुकमा बीजापुर में हुए नक्सली हमले में 22 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे गए, तो वरावर राव जैसे शहरी नक्सलियों को दी जा रही सहूलियतें स्पष्ट तौर से कठघरे में आती हैं। आखिर ऐसी क्या सेवा वरावर राव जैसे लोगों ने की है, कि उन्हे ये जानते हुए भी रिहा किया जाता है कि इनका बाहर रहना देश और समाज दोनों के लिए खतरनाक है? इतिहास के पन्ने पलटकर देख लीजिए, तो जब भी देश पर संकट आया, वामपंथियों ने हमेशा भारत की पीठ में छुरा घोंपा। लेकिन वरावर राव जैसे शहर नक्सलियों को खुलेआम घूमने देने के कारण ही आए दिन हमारे सुरक्षाकर्मियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ रहा है। इस बात का जवाब कौन देगा?