पिछले दिनों जब से इजराइल और फिलिस्तीन के आतंकी संगठन हमास के बीच टकराव बढ़ा है, भारत में इस मुद्दे को लेकर वैचारिक विभाजन की स्थिति बनी हुई है। अधिकांश राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों ने खुलकर सोशल मीडिया पर इजराइल का समर्थन किया है। हालांकि भारत सरकार ने इस पर आधिकारिक रूप से कोई बयान जारी नहीं किया है।
इसी कारण इजराइल ने भी आधिकारिक रूप से भारत का शुक्रिया नहीं किया, जिसके बाद एक चर्चा भारत की इजराइल-फिलिस्तीन नीति को लेकर शुरू हो गई है। इजराइल की आजादी के बाद भारत ने द्विराष्ट्र सिद्धांत को, तथा मजहब के आधार पर दो देशों के गठन को अपना समर्थन नहीं दिया था।
इसके पीछे भारत का तर्क यह था वह स्वयं मजहब के नाम पर हुए विभाजन का भुक्तभोगी है, इसलिए वह नहीं चाहता कि दुनिया में कहीं ऐसा हो। गांधीवादी आदर्शवाद के कारण भारत ने तर्क दिया कि अरब यहूदियों को गले लगाएं, और यहूदी अरबों को।
हालांकि यह हास्यप्रद था, लेकिन इसी विचार के आधार पर और नेहरू जी की सोवियत रूस के पक्ष में खड़े रहने की आदत के चलते भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इजराइल-फिलिस्तीन विभाजन के विपक्ष में वोटिंग की। हालांकि भारत भले ही मुस्लिमों से यहूदियों को गले लगाने की अपील करता रहा लेकिन विभाजन होते ही मुस्लिम देशों ने, यहूदियों के पूर्ण खात्मे के उद्देश्य से, इजराइल पर हमला कर दिया।
यह वही समय था जब पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे को लेकर भारत पर हमला किया था। इजराइल से समानता रखने के बावजूद भी भारत इजराइल के साथ नहीं खड़ा हुआ, और न ही उसने UN में इजराइल के प्रवेश के पक्ष में वोट किया।
जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के बाद वाजपेयी जी ने भी नेहरू जी की इजराइल नीति को समर्थन किया था, लेकिन उसमें एक महत्वपूर्ण बात जोड़ते हुए यह समर्थन दिया था कि हम इजराइल के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, लेकिन उसने जो फिलिस्तीन की अतिरिक्त जमीन कब्जाई है, उसका समर्थन नहीं करते।
यह भाषण उस समय दिया गया था जब अरबों और इजराइल के बीच प्रसिद्ध Six day War हुई थी और इजराइल ने काफी बड़ा हिस्सा कब्जा लिया था। सम्भवतः वाजपेयी जी ने इजराइल के बलपूर्वक किए गए कब्जे को गलत इसलिए ठहराया था क्योंकि तब तक भारत को संयुक्त राष्ट्र से यह उम्मीद थी कि आज नहीं तो कल, संयुक्त राष्ट्र भारत की उस जमीन को वापस दिलवाएगा, जिसपर चीन और पाकिस्तान ने जबरन कब्जा कर रखा है।
यह 1980′ के दौर की बात है, जब विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र थोड़ा बहुत प्रभावी निर्णय दिया करता था। उस समय छोटे देश संयुक्त राष्ट्र को आशाभरी नजरों से देखते थे। उस समय भारत कोई वैश्विक महाशक्ति नहीं था, बल्कि डूबती हुई अर्थव्यवस्था वाला देश था। आज हालात बहुत बदल गए हैं, आज न तो भारत कमजोर है और न ही उसे बलपूर्वक किए गए कब्जे छुड़ाने के लिए किसी भी अंतरराष्ट्रीय मंच की आवश्यकता है।
सत्य यह है कि UN भी आज केवल भाषणबाजी का अड्डा ही बनकर रह गया है। आज कोई भी वैश्विक समस्या, यहाँ तक कि क्लाइमेट चेंज की समस्या भी, संयुक्त राष्ट्र से नहीं सुलझ पा रही है । आज का भारत संयुक्त राष्ट्र का मोहताज नहीं, वह अपने फैसले खुद ले सकता है। न ही भारत को मुस्लिम देशों की आवभगत की आवश्यकता है।
आज सऊदी, UAE जैसे देशों के लिए भारत के साथ संबंध बनाए रखना अति आवश्यक है। इन देशों को यदि अपनी अर्थव्यवस्था को तेल आधारित अर्थव्यवस्था से हटाकर, उसे और विस्तृत विकल्प देने हैं, तो यह मौका उन्हें केवल भारत ही दे सकता है। रही बात ईरान की चिंता की, तो भारत को यह समझना चाहिए कि अगले 25 वर्षों में वैश्विक राजनीति जो करवट लेगी उसमें भारत और चीन धुर विरोधी बनकर उभरेंगे और ईरान किसी भी दिन, चीन को भारत से अधिक तवज्जो देगा।
अतः भारत सरकार को अपनी वर्तमान इजराइल नीति में बदलाव करना चाहिए। उसे खुलकर हमास का विरोध करना चाहिए। भले ही भारत फिलिस्तीन को आर्थिक मदद देता रहे, उसके अस्तित्व को स्वीकार करे, लेकिन भारत को तुरंत प्रभाव से हमास को आतंकी संगठन घोषित करना चाहिए।
भारत की विदेश नीति आज भी पाकिस्तान को नजर में रखकर बनाई जाती है, भारत की सोच है कि पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए भारत को मुस्लिम देशों की जरूरत है, जबकि सच यह है कि भारत और पाकिस्तान के अतिरिक्त सारी दुनिया यह तथ्य स्वीकार कर चुकी है कि पाकिस्तान की भारत के सामने कोई हैसियत नहीं है।अतः अब भारत को वैश्विक शक्ति की तरह व्यवहार करना चाहिए।