असम चुनाव से सीख – भाजपा को तुष्टिकरण की राजनीति से दूरी बना, कोर अजेंडा पर टिके रहना चाहिए

भाजपा ने असम में अपनी सभी अल्पसंख्यक इकाइयों को किया रद्द

जल जीवन मिशन का उद्घाटन करते मोदी जी

2 मई को 4 राज्यों और 1 केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनाव के परिणाम सामने आए। इनमें जहां असम में भाजपा अपना दुर्ग बचाने में सफल रही और साथ ही साथ तमिलनाडु और पुडुचेरी में अपनी धाक जमाने में कामयाब रही, तो वहीं केरल और बंगाल में बेहतर प्रदर्शन करने के बाद भी भाजपा को मनचाही सफलता नहीं मिली।

भाजपा असम में सरकार बनाने के साथ ही 60 सीटों सहित राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इससे भाजपा को सबसे बड़ी सीख मिली है – अपने मूल आदर्शों से कोई समझौता न करे।
परंतु यही एक कारण नहीं है जिसकी वजह से अब असम पर सबका ध्यान केंद्रित हो रहा है। असम चुनाव से कई अहम सीख मिली है – यदि आपका काम उचित है, और आपने सच में सुशासन किया है, तो आपको कोई ताकत नहीं हरा सकती।

लाख युक्तियाँ अपनाने के बावजूद न तो काँग्रेस और न ही उनके CAA विरोधी चमचे भाजपा को सत्ता से हटा पाए। अब इसी चुनाव के पश्चात भाजपा ने एक साहसिक निर्णय में असम की अपनी सभी अल्पसंख्यक इकाइयों को रद्द कर दिया है, जिससे एक स्पष्ट संदेश गया है – यदि आप हम वोट नहीं देना चाहते, तो हम आपके वोट के लिए लालायित भी नहीं है।

लेकिन भाजपा ने ऐसा निर्णय क्यों लिया? दरअसल भाजपा ने एनडीए के सीट शेयरिंग प्लान के अंतर्गत 93 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें 8 सीटों पर उन्होंने मुस्लिम उम्मीदवार भी उतारे। लेकिन चुनाव में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार विजयी नहीं हुआ, और भाजपा वह 8 की 8 सीट्स हार गई।

इसके अलावा जिस प्रकार से बंगाल में भाजपा ने तुष्टीकरण का दांव खेला था, उससे भी काफी हद तक एक नकारात्मक संदेश गया है। इसीलिए 5 मई को असम भाजपा के महासचिव डॉक्टर राजदीप रॉय द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई।

इस विज्ञप्ति के अनुसार हाल ही में संपन्न हुए असम विधानसभा चुनावों में दल के अल्पसंख्यक मोर्चा का प्रदर्शन निम्न स्तर का रहा। प्रदर्शन इतना खराब था कि दल को अल्पसंख्यक मोर्चा के पंजीकृत सदस्यों के वोट भी नहीं मिले। यही कारण है कि प्रदेश अध्यक्ष रंजीत कुमार दास ने प्रदेश में पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चे को ही भंग कर दिया है।

अब इससे भाजपा ने एक बेहद स्पष्ट और अहम संदेश दिया है – अब तुष्टीकरण की राजनीति को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा। जिस दल के नेतृत्व का नारा ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ हो उसके अल्पसंख्यक मोर्चे के सदस्य ही उसे वोट न करें तो वह दल आम अल्पसंख्यक वोटर से क्या उम्मीद लगाएगा?

यह निर्णय इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि जब भी भाजपा ने मूल उद्देश्यों से कोई समझौता नहीं किया है, और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को ठेंगा दिखाया है, तो उसने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश को ही देख लीजिए। 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने मूल उद्देश्यों से न तो कोई समझौता किया और न ही उन्होंने एक भी अल्पसंख्यक उम्मीदवार उतारा।

परिणामस्वरूप एनडीए ने प्रचंड बहुमत प्राप्त करते हुए 404 में से 325 सीटें जीती, और स्वयं भाजपा ने इतिहास रचते हुए 312 से अधिक सीटों पर कब्जा जमाया।

ऐसे में असम भाजपा ने अल्पसंख्यक मोर्चा भंग कर एक सराहनीय और अहम संदेश दिया है – अपने मूल आदर्शों का सम्मान करे, तो संसार की कोई शक्ति आपको आपके पथ से नहीं डिगा सकती। ये न केवल एक अहम निर्णय है, बल्कि 2022 के यहां विधानसभा चुनावों से पहले एक आवश्यक सीख भी है।

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