2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर वोट बैंक की राजनीति का खेल शुरु हो गया है। सपा, बसपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां पिछले चुनावों में बीजेपी की बंपर जीत के बाद अपने खोए वोटर बेस की वापसी के लिए अजीबो-गरीब पैंतरे अपना रही हैं। टीएफआई पहले ही एक लेख में बता चुका है कि ब्राह्मण वोट बैंक इन विधानसभा चुनाव में सबसे अहम है। वहीं, कांग्रेस और सपा ने कानपुर के विकास दुबे कांड के बाद ही ब्राह्मणों की सुरक्षा का मुद्दा उठाया था, लेकिन बसपा तो इस मामले में चार कदम आगे निकल गई है। बसपा विकास दुबे के भतीजे अमर दुबे की पत्नी खुशी दुबे का केस खुद लड़ने की प्लानिंग कर चुकी है।
ये इस बात का संकेत है कि पार्टी ब्राह्मण वोट बैंक पर अपनी नजर रखे हुए है, लेकिन बसपा का ये दांव उस पर ही भारी पड़ सकता है क्योंकि विकास दुबे और उससे जुड़े आरोपियों की छवि ब्राह्मण जाति से अलग एक अपराधी की बन चुकी है।
साल 2020 मध्य में कानपुर के विकास दुबे कांड को कौन नहीं जानता, जिसने पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतारा था। उसका एनकाउंटर विपक्षी पार्टियों के लिए अपराधी की मौत से ज्यादा ब्राह्मण की मौत का मुद्दा बन गया था।
अब विधानसभा चुनावों में वही मुद्दा उछाला जा रहा है। ऐसे में बड़ा दांव चलते हुए मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने प्लानिंग की है कि वो इस मुद्दे को ब्राह्मण वोट बैंक के नाम पर भुनाएगी। न्यजू 18 की एक रिपोर्ट बताती है कि बसपा विकास दुबे के केस से जुड़े अपराधी अमर दुबे की पत्नी खुशी दुबे का केस लड़ेगी। बसपा के इस फैसले को चुनावी पंडित बीजेपी के लिए चुनौती की तरह पेश कर रहे हैं।
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ऐसा नहीं है कि बसपा केवल ये केस सांकेतिक तौर पर लड़ेगी, अपितु बीएसपी में नंबर दो माने जाने वाले बसपा के ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्रा खुद खुशी दुबे के केस की पैरवी करते कोर्ट में दिखाई देंगे। बसपा नेता नकुल दुबे ने बताया कि सतीश चंद्र मिश्रा एक वरिष्ठ वकील हैं, और उन्होंने खुशी दुबे की अर्जी पर उनका केस लड़ने के लिए वकालतनामे पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, इसलिए वो खुशी दुबे का केस लड़ेंगे।
उन्होंने कहा कि सतीश चंद्र मिश्रा सभी जाति धर्म के लोगों की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। भले ही बीएसपी इसे एक साधारण घटनाक्रम बता रही हो, लेकिन असल राजनीति यही है कि पार्टी अपने ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्रा द्वारा खुशी दुबे केस की कोर्ट में पैरवी करवा रही है, जिससे वो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव का लाभ ले सके।
बीएसपी के इस कदम को राजनीतिक विश्लेषक एक मास्टर स्ट्रोक की तरह पेश कर रहे हैं, जोकि उत्तर प्रदेश मे राजनीतिक रूप से खत्म हो चुकी एक पार्टी के पक्ष में बनाई जा रही हवा का संकेत देता है।
बीएसपी सोशल मीडिया पर अन्य राजनीतिक दलों की तरह एक्टिव नहीं रहती है। पार्टी आज भी अपने पारंपरिक चुनाव प्रचार के जरिए समर्थन जुटाने की कोशिश करती है। बीएसपी को लेकर कहा जाता है कि वो प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में डोर-टू-डोर कैंपेन के जरिए प्रत्येक व्यक्ति से कार्यकर्ताओं के दम पर संवाद करती है और उन तक अपना संदेश पहुंचाती है, लेकिन अब ये पुरानी बात हो गई है।
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2014 में दलित वोट बैंक बीजेपी के साथ आने के बाद बसपा की पहुंच से बाहर हो गया है। वहीं, ब्राह्मण वोट बैंक को लेकर खेला गया कार्ड बसपा के लिए उल्टी मुसीबत भी बन सकता है। इसकी एक बड़ी वजह लोगों का विकास दुबे के केस से जुड़े रहना है। सभी जानते हैं कि विकास दुबे ने दबिश डालने आए पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतारा था।
राजनीतिक पार्टियां भले ही उसके अपराध से ज्यादा उसके नाम पर फोकस कर रही हों, लेकिन सच ये है कि उसने अपने जीवन काल में सबसे ज्यादा ब्राह्मणों को ही मारा है, यहां तक कि मारे गए पुलिस कर्मियों में भी कई ब्राह्मण ही थे। इन सबके बावजूद राजनीतिक पार्टियां अपने राजनीतिक हितों को लेकर बवाल कर रही हैं।
ये सारी जानकारियां जनता के बीच में पहले से मौजूद हैं, ऐसे में बसपा भले ही ब्राह्मण वोट बैंक के लिए सतीश चंद्र मिश्रा के जरिए विकास दुबे कांड को हवा दे रही हो, लेकिन सच तो ये है कि बसपा का ये कदम उसके लिए ही आत्महत्या का पर्याय बन सकता है। ये भी संभव है कि जो ब्राह्मण पहले बसपा को वोट देते भी हों, वो भी न दें।