मंदिरा बेदी के पति की मृत्यु उनकी निजी हानि है, फेमिनाज़ियों ने इसे भी “अभियान” बना डाला

मंदिरा बेदी के पति की मौत का मज़ाक बना दिया फेमिनिस्टों ने!

मंदिरा बेदी पति अंतिम संस्कार

(PC: India Forums)

आज के दौर में समाज का वैचारिक स्तर धरातल की गहराई में समाता जा रहा है। जिस समस्या के हल पर विचार करना चाहिए, उसके स्थान पर समस्या को ही बढ़ावा देकर, उसे समाज को बांटने का एक हथियार बनाया जा रहा है। आज नारीवाद या Feminism भी यही कर रहा है। अब यह Feminism‘फेमीनाज़ी’ बन चुका है। हर रोज ऐसे कई उदहारण देखने को मिल जाते हैं, जब इस वैचारिक मत को आधार बना कर हिन्दुओं को नीचा दिखाने या घृणा पैदा करने की कोशिश की जाती है। हाल ही में एक ऐसी ही घटना हुई। बात थी Actress मंदिरा बेदी के पति की अंतिम संस्कार की। उनका अंतिम संस्कार स्वयं मंदिरा बेदी ने ही किया। आम तौर पर यह नहीं देखा जाता कि महिलाएं मुखाग्नि देकर अंतिम संस्कार करें।

हालांकि, हिन्दू धर्म में ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है कि सिर्फ पुरुष को ही अंतिम संस्कार करना है। देश के कई कोनों में महिलाएं अपने परिजनों का अंतिम संस्कार करती हैं। मंदिरा बेदी का अपने पति का अंतिम संस्कार करना कोई ऐसा घटना नहीं थी, जिसे “आउट ऑफ़ द ब्लू” कहा जाये। परन्तु पुरुषों को निम्न मानने वाले वर्ग को फेमिनिस्ट एजेंडा आगे बढ़ाने का एक और मौका मिल गया। एक के बाद एक कई पोर्टल्स पर बड़ी-बड़ी हैडलाइन के साथ लेख प्रकाशित किये गए। She The People ने अपनी हैडलाइन लिखी,“पितृसत्तात्मक रीति-रिवाजों को तोड़कर मंदिरा बेदी ने किया पति का अंतिम संस्कार।”

किसी भी मुद्दे को तिल का ताड़ बनाना आज एक फैशन बन चुका है। यही काम “She the People” जैसे पोर्टल कर रहे हैं। इन्होंने अपने लेख में लिखा कि महिलाओं को अंतिम संस्कार न करने देना सिर्फ एक “Custom” नहीं है, बल्कि एक “Sexist Custom” है। हालाँकि, इस पोर्टल ने अपने ही लेख में कई महिलाओं जैसे, अटल बिहारी वाजपेयी का अंतिम संस्कार करने वाली उनकी गोद ली हुई बेटी, नमिता कॉल और मल्लिका साराभाई; तथा बनारस की महिलाओं का उदाहरण दिया है। परन्तु फिर भी उनका कहना है कि महिलाओं को अंतिम संस्कार नहीं करने दिया जाता है। इस लिस्ट में कई और नाम है जैसे, सुषमा स्वराज का अंतिम संस्कार करने वाली उनकी बेटी, बांसुरी स्वराज तथा कई अनगिनत स्त्रियाँ जहाँ मीडिया नहीं पहुँच पाती है।

यह सच है कि महिलाओं को आज भी लिंग के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें हर बार वो नहीं मिलता जिसका वे हक़दार होती हैं। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि समाज ने अपने आप में सुधार नहीं किया। महिलाओं का स्थान इस्लामिक आक्रान्ताओं के आक्रमण के कारण सिमट कर घर के चौखट तक रह गया था। इस्लामिक आक्रान्ताओं ने आक्रमण के दौरान भारत के धन के बाद अगर सबसे अधिक कुछ लूटा तो वह महिलाओं का सम्मान ही था।

900 से अधिक वर्षों तक के इस्लामिक शासन में उत्तर-पश्चिम से आये सैनिकों की बर्बरता और “काफिरों” के लिए मन में घृणा को देखते हुए भारत के हिन्दू समाज की महिलाओं ने अपने आप को अपने घर तक ही सिमित कर लिया। लूट, हत्या बलात्कार करने वाले सैनिकों के ड़र से महिलाओं को सुरक्षित रखने के लिए घर के किसी कोने में रखा जाना ही बेहतर समझा जाने लगा। धीरे-धीरे इसने एक रिवाज़ की शक्ल ले ली। परन्तु धीरे-धीरे अब महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के कंधे से कन्धा मिला कर चलने लगी हैं।

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आज समस्या यह है कि Gen Z में नारीवाद या महिलाओं के उत्थान का अर्थ पुरुषों को पैरो तले दबाये जाने और हिन्दू धर्म पर किसी भी तरह अघात से ही समझा जाता है। अगर हिन्दू धर्म को शराब या जुए से ठेस पहुँचती है तो ठीक ऐसा करना ही Feminism माना जायेगा और इसको बढ़ावा देने के लिए बड़े-बड़े लेख लिखे जायेंगे।

अगर मनुस्मृति पर जूता रखने से हिन्दू धर्म का मजाक उड़ेगा, तो उसे ही Feminism घोषित कर दिया जाएगा। आज कर्म से अधिक दिखावे में विश्वास किया जाता है, और यही हमारे समाज की दुर्दशा का कारण बन रहा है। मंदिरा बेदी द्वारा अपने पति का अंतिम संस्कार करने के मुद्दे को भी FemiNazis ने अपने फायदे के लिए ही इस्तेमाल करने की भरपूर कोशिश की है। यह विडम्बना है कि आज समाज में उत्थान का तात्पर्य आगे बढ़ना नहीं बल्कि सामने वाले को नीचा दिखाना बनकर रह गया है।

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