बिहार में राजनीति और कुर्सी के मोह की वजह से कई बड़े चेहरे हाशिये पर जाते दिखे तो कई अपने राजनीतिक जीवन को सार्थक करते हुए उसे शिखर की ओर बढ़ते चले गए। एक ओर उपेंद्र कुशवाह के राजनीतिक जीवन की चकाचौंध कम हुई तो वहीं 2016 में जेडीयू की कमान हाथ में आते ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के वारे-न्यारे हो गए। अपनी छवि मुखर बनाने के लिए नीतीश ने कई बार अपने दाँव से आरसीपी सिंह जैसे कई धुरंधरों को पटखनी दी थी, जिनमें जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के संस्थापकों में एक नाम शरद यादव का भी है। अब जब नीतीश को फिरसे अपने दल कमान खुद अपने हाथ में लेने का आभास हुआ है तो पुनः जेडीयू में नए समीकरण बनते दिख रहे हैं।
राजनीतिक दलों में दायित्व परिवर्तन एक सामान्य प्रक्रिया है, पर जेडीयू में इस परिवर्तन से पहले बहुत ओह पोह की स्थिति रहती है। प्रत्येक दल “एक व्यक्ति-एक पद” की रीति अपने दल में होने की बात तो करता है पर जब दायित्व छोड़ने की बात आती है तो सबके पसीने छूट जाते हैं पर पद नहीं छुटता है। जैसे की 2016 के बाद 2020 में नीतीश को जबरन जेडीयू अध्यक्ष पद आरसीपी सिंह को देना पड़ गया था।
हाल के दिनों में, यह देखा गया है कि नीतीश कुमार को जेडीयू नेताओं और विधायकों की ओर से विशेष महत्व नहीं मिल रहा है, न ही कोई उनके फैसलों से सहमत दिखाई पड़ता है। जहां भाजपा जनसंख्या नियंत्रण कानून की वकालत करती है तो वहीं एनडीए के साथ होने के बावजूद नीतीश कुमार इसे सिरे से खारिज करते हुए ऐसे फैसलों को बिहार में लागू करने से मना कर देते हैं। वहीं उन्हीं के जेडीयू विधायक जनसंख्या नियंत्रण को लेकर बिहार राज्य में कानून बनाने की बात करते हुए विधानसभा के पटल पर आग्रह करते हैं तो नीतीश की अपने ही दल में ऐसी अस्वीकार्यता उनके कमजोर होने का परिचय दे देती है।
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इसी का परिणाम है कि अब नीतीश को अपने विलुप्त होने कि आहट और सुगबुगाहट महसूस होने लगी हैं, उसी के फलस्वरूप नीतीश पुनः पार्टी को नया अध्यक्ष देने की कोशिशों में जुट चुके हैं। वर्तमान जेडीयू राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह वर्ष 2005 से नीतीश के उन चुनिंदा विश्वासपात्र लोगों में से हैं जिन्हें 2020 में पार्टी की कमान देते हुए नीतीश ने जेडीयू का अध्यक्ष बनाया था। लेकिन पार्टी में आरसीपी सिंह के बढ़ते कद और स्वीकार्यता से नीतीश को चिंता सताने लगी है कि आने वाले समय में उनका पत्ता पूर्णतः साफ़ न हो जाए।
लंबे प्रशासनिक अनुभव और पार्टी नेताओं में अच्छी पकड़ के चलते आरसीपी सिंह को हाल ही में हुए केन्द्रीय मंत्रिमंडल विस्तार में जगह मिली थी। उन्हें जेडीयू कोटे से मंत्री बनाते हुए जेडीयू को 2019 चुनावों में जीत के बाद पहली बार जगह दी गयी, 2019 में जेडीयू को मिले मंत्री पद की संख्या से नाखुश नीतीश ने मोदी मंत्रिमंडल में शामिल न होने का फैसला लिया था।
अब जिस तरह नीतीश “एक पार्टी एक पद” के नाम पर आरसीपी सिंह को पार्टी-संगठन की राजनीति से अलग करने की तैयारी में जुट गए हैं। वहीं नीतीश को ये पता होने के बावजूद कि आरसीपी सिंह को जेडीयू कार्यकर्ता और पार्टी नेताओं तथा भिन्न विचारधारा वाले नेताओं की मान्यता प्राप्त है, यदि नीतीश फिर भी यह कदम उठाते हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद अपने पास रखते हैं तो भी बवाल होना निश्चित है। यदि नीतीश, आरसीपी सिंह को हटा किसी और को भी यह ज़िम्मेदारी देते हैं तो भी कार्यकर्ताओं की नाराजगी आपसी मतभेद का कारण बनेगी।
वहीं यदि आरसीपी ने बगावत करते हुए पार्टी को उसी तरह अपना बना लिया जैसे नीतीश ने शरद यादव के समय बनाया था, तो फिर नीतीश का हाल “न ख़ुदा ही मिला न विसाल–ए–सनम” जैसा हो जाएग अर्थात न इधर के हुए न उधर के हुए जैसा हो जाएगा। ये भी संभावना है कि जेडीयू आरसीपी सिंह की होते ही, सारे विधायक और कार्यकर्ता उनके गुट में चले जाएंगे। वहीं यदि नीतीश आरजेडी संग नया गठजोड़ बना सरकार को फिर अपनी तरफ करना चाहेंगे तो उसके लिए भी तो विधायकों का विश्वास मत और संख्याबल होना ज़रूरी होगा, जो तब तक नीतीश नहीं आरसीपी सिंह के साथ होगा।
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बात इतनी सी है कि आरसीपी सिंह के बढ़ते प्रभुत्व और पार्टी से इतर उनकी स्वीकार्यता नीतीश को रास नहीं आ रही है, उसी वजह से नीतीश “एक पार्टी एक पद” का नारा बुलंद करते हुए नेतृत्व परिवर्तन की ओर ज़ोर देने में लगे हुए हैं। अब नीतीश की कार्यशैली से नाखुश उनके पार्टी के विधायक और कार्यकर्ता उनको अपना नेता मानने से बचते दिख रहे हैं। वो सदन में जेडीयू के विधायकों ने उनके बयान के उलट उन नीतियों की मांग रखते हुए पहले ही दर्शा दिया है। अब ऐसे में नीतीश के फैसलों से स्वयं नीतीश को ही हार हासिल होगी।