हाल ही में नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा (Sher Bahadur Deuba) को आधिकारिक तौर पर पाँचवी बार नेपाल का प्रधानमंत्री बनया गया है। 75 वर्षीय शेर बहादुर देउबा ने मंगलवार को राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के कार्यालय में शपथ ग्रहण किया। नेपाल की सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली द्वारा 21 मई को संसद को भंग करने के फैसले को असंवैधानिक करार दिया था और शेर बहादुर देउबा को नेपाल का प्रधानमंत्री नियुक्त करने का आदेश दिया था।
केपी शर्मा ओली को प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने के तुरंत बाद भारत ने इस सुनहरे अवसर का फायदा उठाते हुए नए प्रधानमंत्री को ट्वीट कर बधाई दी। भारतीय दूतावास ने लिखा कि,“देउबा शेरबहादुर से मुलाकात का सम्मान मिला, नेपाल का प्रधानमंत्री बनने पर उन्हें शुभकामनाएं एवं बधाई दी। साझा प्रगति और समृद्धि के लिए बहुआयामी भारत-नेपाल साझेदारी तथा लोगों से लोगों के बीच संबंधों को गहरा करने के लिए उनकी टीम के साथ काम करने के लिए तत्पर हैं।”
Honoured to call on @DeubaSherbdr; extended congratulations and best wishes on becoming PM of Nepal. Looking forward to working with his team to deepen the multifaceted India-Nepal partnership and people-to-people ties for common progress and prosperity.
@MEAIndia@PMOIndia pic.twitter.com/zKxzLJcG1C— IndiaInNepal (@IndiaInNepal) July 14, 2021
आपको बता दें कि नेपाल के नए प्रधानमंत्री का रुख भारत और हिन्दू समुदाय के पक्ष में रहा है। शेर बहादुर देउबा ने साल 2017 में नेपाल के 40वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी। इससे पहले 1995 से 1997 तक, फिर 2001 से 2002 तक, और 2004 से 2005 तक नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। इसके अलावा वो नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। शेर बहादुर देउबा साल 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले थे और दोनों प्रधानमंत्रियों ने नेपाल और भारत के रिश्तों को नई ऊंचाई देने की बात कही थी।
इतना ही नहीं शेर बहादुर देउबा ने नेपाल के संविधान में secularism शब्द जोड़ने पर आक्रोश जताया था। उनका कहना था कि नेपाल एक हिन्दू राष्ट्र है और उसे हिन्दू राष्ट्र ही बनाए रखना चाहिए। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार शेर बहादुर देउबा ने साल 2015 में नई दिल्ली में कहा था कि वो नेपाल के संविधान से secularism शब्द को निकलवाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। गौरतलब है कि नेपाल एक हिन्दू बहुल राष्ट्र है। साल 2011 के जनगणना के मुताबिक नेपाल में 85 प्रतिशत हिंदुओं की आबादी थी। साल 2007 तक नेपाल में राजशाही शासन था।
जब केपी शर्मा ओली ने नेपाल की सत्ता संभाली तब उन्होंने नेपाल की बागडोर पर्दे के पीछे से चीनियों के हाथों में देकर अपने देश की जनता के साथ विश्वासघात किया। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पिछले वर्ष नेपाल और भारत के रिश्तों के बीच खट्टास केवल चीन के कारण आई थी। सदियों से चले आ रहे रोटी- बेटी के रिश्ते में दरार नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री ओली के नेतृत्व में आई थी। इस दरार का मुख्य कारण था, ओली का चीन की तरफ झुकाव।
चीन नेपाल में अपने पांव पसारने की कवयाद कर रहा था और नेपाली प्रधानमंत्री ने उसका पर्दे के पीछे से बढ़-चढ़कर समर्थन किया था। केपी शर्मा ओली पर चीनी प्रभाव इतना ज्यादा बढ़ गया था कि वह भारत के भू-हिस्से को अपना बताने लगे थे, अर्थात् चीनियों की विस्तारवाद की भाषा बोलने लगे थे। ओली के इस रुख को लेकर न ही नेपाली कांग्रेस उनसे सहमत थी और न ही नेपाल की जनता।
दरअसल, ओली सता में कम्यूनिस्ट पार्टी के माध्यम से आए थे। ऐसे में लाजमी था कि चीन का प्रभाव काठमांडू में बढ़-चढ़कर बोलेगा। चीन long टर्म game खेलने के लिए नेपाल को भारत के खिलाफ कर रहा था। यह सब तब हो रहा था जब भारत और चीनी सेना के बीच लद्दाख-तिब्बत सीमा पर झड़प की खबरें आई थीं, अंततः चीन को घुटने टेकने पड़े थे। वहीं, दूसरी ओर नेपाल के माध्यम से भी चीन भारत के ऊपर दबाव बनाने का षडयंत्र चल रहा था, लेकिन लद्दाख में जिस तरह चीन को झटका मिला; ठीक वैसी ही मात नेपाल को भी खानी पड़ी। इसके विपरीत अब केपी शर्मा ओली के प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त किए जाने के बाद चीन के मंसूबो पर पानी फिर गया है।
नेपाल के नए प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा से भारत सरकार और भारतीय जनता ये उम्मीद कर रही है कि, शेर बहादुर देउबा नेपाल की दशकों पुरानी हिन्दू सभ्यता और संस्कृति को बरकरार रखेंगे और साथ ही में भारत से अपने रिश्ते को दुरस्त करेंगे, जिससे भविष्य में चीन की षडयंत्रकारी नीतियों का दोनों देशों के रिश्तों पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े।