शहीद, मशाल, मजदूर, आजाद- दिलीप कुमार ने कैसे फिल्मों के माध्यम से मार्क्सवाद का महिमामंडन किया

कैसे अपनी फिल्मों के जरिए दिलीप कुमार देते थे 'मार्क्सवाद' को बढ़ावा

दिलीप कुमार फिल्म

बॉलीवुड के वयोवृद्ध फिल्म अभिनेता यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार हमारे बीच नहीं रहे। स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के चलते उनका 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। दिलीप कुमार की मृत्यु से बॉलीवुड शोकाकुल है।

दिलीप उन चंद अभिनेताओं में शामिल हैं, जिन्होंने अपने जीते जी अपने करियर पर कालिख नहीं पुतने दी। परंतु उनका करियर पूरी तरह दूध का धुला भी नहीं रहा है। दिलीप कुमार ने भले ही अन्य अभिनेताओं की तरह विषैली हिन्दू विरोधी फिल्मों में काम न किया हो, परंतु फिल्म में मार्क्सवाद को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने भी बढ़ावा दिया है।

इसकी शुरुआत 1948 से ही हो चुकी थी, जब ‘शहीद’ नामक फिल्म सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी। हालांकि तब ये स्पष्ट नहीं था, परंतु जिस प्रकार से फिल्म में दिलीप के पिता और मित्र का चित्रण किया गया था, उन्हे पूंजीवादी दिखाने का पूरा प्रयास किया गया था। ये मार्क्सवादी सिद्धांत का एक अहम भाग है – जहां किसी भी प्रकार की अमीरी को सदैव बुराई के तौर पर चित्रित करना आवश्यक होता है। हालांकि, तब दर्शकों के सामने यह स्पष्ट नहीं था परंतु जिस प्रकार से फिल्म में दिलीप के पिता और मित्र का चित्रण किया गया, उन्हे पूंजीवादी दिखाने का पूरा प्रयास किया गया था। ये मार्क्सवादी सिद्धांत का एक अहम भाग है – जहां किसी भी प्रकार की अमीरी को सदैव बुराई के तौर पर चित्रित करना आवश्यक होता है।

परंतु यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। 1957 में दिलीप कुमार की एक फिल्म आई, ‘नया दौर’। इसमें प्रत्यक्ष दौर से दिखाया गया कि यदि देश में आधुनिक उद्योग आए और नए बस एवं आधुनिक परिवहन आए, तो सब बर्बाद हो जाएगा, कुछ भी पहले जैसा नहीं रह जाएगा। बदलाव का विरोध करना भी मार्क्सवाद का एक अहम भाग रहा है, और औद्योगिकीकरण का विरोध भी ‘नया दौर’ में कूट-कूट कर किया गया।

यदि दिलीप कुमार ने किसी भी फिल्म में हिन्दू विरोध को बढ़ावा नहीं दिया, तो वामपंथ को निश्चित रूप से उन्होंने बढ़ावा दिया था। उनके फिल्मों में कुछ बातें समान रूप से पाई जाती थी – विलेन सदैव या तो एक पूंजीवादी जमींदार होता था, या फिर कोई स्मगलर / उद्योगपति, जो गलत तरह से लाभ अर्जित करता था और नायक यानि दिलीप कुमार सदैव उसके विरुद्ध युद्ध करता था। फिल्म गंगा जमना में डकैत गंगाराम हो, या फिर लीडर में विजय खन्ना, मार्क्सवाद को धीरे-धीरे जनता को ऐसे परोसा जाने लगा कि जनता को असली खेल समझ में भी नहीं आता था, और काम भी हो जाता था।

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हालांकि, ये खेल अस्सी के दशक में खुलकर सामने आने लगा। इसके दो सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण थे मजदूर और मशाल। रवि चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म मजदूर में दिलीप कुमार एक ट्रेड यूनियन के लीडर थे, जो सुरेश ओबेरॉय के नीतियों के विरुद्ध लड़ते थे। दूसरी तरफ यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म मशाल में दिलीप कुमार एक अखबार चलाते हैं और परिस्थितियों के चलते वे अपराध की ओर भी मुड़ने को विवश हो जाते हैं।

इतना ही नहीं, सुभाष घई द्वारा निर्देशित फिल्म ‘विधाता’ में दिलीप कुमार एक ट्रेन ड्राइवर शमशेर सिंह की भूमिका भी निभाते हैं, जो विपरीत परिस्थितियों के चलते एक बेईमान स्मगलर से भिड़ने के कारण खुद अपराध की ओर मुड़ जाता है। दिलीप कुमार के बारे में सबसे अच्छी बात यही थी कि वे जितना हो सके, विवादों से दूर रहे। लेकिन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने भी कहीं न कहीं  एजेंडावादियों, विशेषकर मार्क्सवादियों को अपने फिल्मों द्वारा जनता के मन में विष घोलने का अवसर दिया था।

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