उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारी जोरों- शोरों से चल रही है। हर एक पार्टी अपनी रणनीति के तहत चुनावी बिगुल फूंक चुकी है। राज्य की क्षेत्रीय पार्टियां जातिवाद की राजनीति के सहारे अपना वोट बैंक साधने में लगी हुई हैं।
लेकिन उत्तर प्रदेश में आखिर जातिवाद की राजनीति है क्या ? जातीय संगठनों की उचित, अनुचित मांगों का समर्थन कर उन्हें अपना वोट बैंक बनाने का प्रयास करना, जिससे जातियों में आपसी वैमनस्य पैदा हुआ हो, यही तो है जातिवाद की राजनीति। इस प्रकार वोट की राजनीति ने न केवल जातीय भावनाओं को भड़काने का प्रयास किया है, बल्कि आपसी जातीय तनाव भी पैदा किया है।
भारत की आजादी के 75 वर्ष के बाद भी उत्तर प्रदेश और बिहार की जमीनी स्तरीय राजनीति में जातिवाद एक बड़ा मुद्दा है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, सुहेलदेव समाज पार्टी जैसे कई अन्य पार्टियों का वजूद ही अपने विशेष जाति के वोट पर निर्भर है। अगर हम बात करें समाजवादी पार्टी की तो उनका मुख्य वोट बेस है यादव वोट बैंक, वैसे ही बहुजन समाज पार्टी पूरी तरह से दलित वोट बैंक पर निर्भर है।
साल 2014 के बाद प्रधानमंत्री ने देश में विकास की राजनीति की पहल की थी, इसका सीधा असर साल 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों में देखने को मिला था। राज्य की जनता ने जाति और धर्म के ऊपर विकास को माना, और इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय जनता पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ राज्य में सरकार बनाने में कामयाब रही।
भारतीय जनता पार्टी ने 2017 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मूल वोट बैंक को हिंदू और विकास के मुद्दे पर आकर्षित किया था। इंडिया टुड़े की रिपोर्ट के अनुसार, 2017 विधानसभा चुनाव 18 प्रतिशत यादवों ने भारतीय जनता पार्टी को चुना था। महज़ 18 प्रतिशत यादव वोट, समाजवादी पार्टी को हार की खाई में धकलने के लिए काफी थे।
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आपको बता दें कि, समाजवादी सरकार के 25 में से 15 मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा था। इतना ही नहीं समाजवादी पार्टी को अपने ही गढ़ में भारी शिकस्त मिली थी। यादवों के गढ़ एटा में 4 में से 4 विधानसभा सीटों पर समाजवादी पार्टी की हार हुई थी। ऐसे ही फ़िरोज़ाबाद में 5 में से 4, बदायूं में 6 में से 5 सीट, और कन्नौज में 2 में से 3 सीटों पर समाजवादी पार्टी हार गई थी।
यह नतीजे इस बात का पुख्ता प्रमाण देते है कि, साल 2017 में यादवों ने जातिवाद की राजनीति को पीछे छोड़ हिंदू और विकास की राजनीति को अपनाया था।
बहुजन समाज पार्टी ने 2017 विधानसभा चुनाव में ‘दलित-मुस्लिम’ वोट बैंक को साधते हुए, 99 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दी थी। मायावती मुख्य तौर पर दलित, अत्यंत पिछड़ा वर्ग यानि पासी, वाल्मीकि, खटीक, कुर्मी, लोध, कुशवाहा, कोईरी और मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर थी। नतीजा यह हुआ कि, 57 प्रतिशत कुर्मी वोट, 63 प्रतिशत लोध वोट भारतीय जनता के पाले में गिरे थे। इतना ही नहीं बीजेपी को जाट समुदाय के 43 प्रतिशत वोट मिले थे। पारंपरिक तौर पर जाट समुदाय उत्तर प्रदेश में राष्ट्रिय लोक दल को अपना मत देते है।
इन आकड़ों से स्पष्ट होता है कि, ओबीसी ही नहीं बल्कि दलित और अत्यंत पिछड़े वर्ग ने भी विकास की राजनीति को स्वीकार किया था और भारतीय जनता पार्टी को विजयी बनाने में अहम भूमिका निभाई थी।
2017 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की सबसे बड़ी दिलचस्प बात यह है कि मुस्लिमों ने भी भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया था। इंडिया टुड़े की रिपोर्ट कहती है कि, 88 विधानसभा सीटें ऐसी है, जहां अल्पसंख्यक समुदाय का वोट बैंक 25 प्रतिशत तक है। गौर करने वाली बात है कि 88 में से 57 सीटों पर बीजेपी की जीत हुई थी, जबकि समाजवादी पार्टी के खाते में मात्र 28 सीट ही गई थी।
मुस्लिम बहुल्य क्षेत्र सहारनपुर, बरेली , मुजफ्फरनगर , मोरदाबाद , शामली, बीजनोर, खलीलाबाद जैसी सीटों पर भगवा पार्टी ने अपना परचम लहराया था।
इससे यह साबित होता है कि, राज्य के मुस्लिमों ने भी धर्म की राजनीति छोड़, विकास की राजनीति को महत्व दिया है।
इन सभी आकड़ों और वर्तमान परस्थितियों को देखें तो यह कहना उचित होगा कि साल 2022 विधानसभा चुनाव में राज्य की जनता जातिवाद की राजनीति को त्याग कर, विकास की राजनीति को अपना सकती है। आगामी चुनाव अनेक जतियों के लोगों के लिए एक परीक्षा भी है कि, क्या वह आने वाले चुनाव में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किए गए काम-काज को चुनते है या अपनी जाति की पार्टियों को!