सत्ता के लोभियों के लिए रिश्ते-मित्रता-यश-अपयश मायने नहीं रखता। बात अगर बिहार की राजनीति की हो तो ये बात और ज्यादा सटीक बैठती है। राज्य में फिलहाल एनडीए गठबंधन के तहत भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) और हिंदुस्तान आवाम मोर्चा की सरकार सत्ता संभाल रही है। यह गठबंधन शर्तों, आपसी हितों और सत्ता लोभ पर आश्रित हो चला है, जिसमें सबसे पहले जेडीयू अपने लालच के आगे किसी को कुछ समझ ही नहीं रही है।
आने वाले समय में नीतीश कुमार बिहार में कुछ खास प्रदर्शन नहीं दिखा पाएंगे जिसके चलते उन्हें स्वयं ही राज्य की सत्ता से सम्मानपूर्वक विदाई ले लेनी चाहिए, लेकिन नीतीश कुमार तो अभी भी सियासी गोटी बिठाने में लगे हैं। बिहार में नीतीश के प्रति जनता की असहमति चुनाव परिणामों से साफ-साफ झलकती है। भाजपा ने फिर भी इतने आक्षेपों और आरोपों के बाद नीतीश को अपना चेहरा स्वीकार किया है। इसके बावजूद अगर नीतीश आने वाले चुनावों में एनडीए से अलग होकर आगे की राह तलाशने में जुटते हैं, तो ये बगावत नीतीश को अबकी बार बहुत बड़ी सीख देगी।
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि नीतीश, भाजपा की हर उस नीति के विरोध में खड़े दिखते रहे हैं जो केंद्र सरकार की समझ में उनका MASTERSTROKE होता था। हाल-फिलहाल जातिगत जनगणना पर जेडीयू और आरजेडी की एकराय इस विरोधाभास की नयी तस्वीर बनने लगी है। जेडीयू के नीतीश भी आरजेडी का पक्ष लेते हुए केंद्र को ज़बरन घेरने में लगे हुए हैं, जिसकी आवश्यकता फिलहाल थी नहीं।
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भारतीय राजनीति में आचरण की शुद्धता और वैचारिक प्रतिबद्धता को अदृश्य हुए बहुत लंबा अरसा बीत चुका है, लिहाजा व्यक्तिगत या सामूहिक दल-बदल की खबरें अब किसी को भी चौंकाती या हैरान नहीं करती हैं। हां, इस बात पर दुख जरूर होता है कि सात दशक पूरे करने जा रहे हमारे लोकतंत्र के अनुभव ने देश की राजनीति को पतन के किस दलदल में लाकर खड़ा कर दिया है। छोटे राज्यों की विधानसभाओं में तो जहां दो राजनीतिक दलों के बीच बहुमत के लिए बहुत कम सदस्यों का अंतर होता है, अक्सर ही विधायकों को पाला बदलकर राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा करते देखा जाता है।
नीतीश कुमार को बिहार की राजनीति में उसी अस्थिरता का जनक कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। 2020 विधानसभा चुनावों में जेडीयू को जनमत हासिल नहीं था, जितनी सीटों पर जीतने का दावा जेडीयू कर रही थी अंत में वो 43 सीटों पर आकर सिमट गयी। जिसका एक बड़ा कारण चिराग पासवान द्वारा एलजेपी को अकेले चुनावी रण में लड़ाना था, जिसने जेडीयू के वोट की काट करते हुए उसे बड़ा झटका दिया।
2020 चुनावी नतीजों में स्पष्ट रूप से गिरते जेडीयू के ग्राफ ने नीतीश कुमार को यह कहने पर मजबूर कर दिया था कि ‘मुझे सीएम नहीं बनना, भाजपा हमारे गठबंधन में 74 सीट लाकर, सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई है, इसलिए हम भाजपा का मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं।’ भाजपा उस समय बड़े भाई की भूमिका में थी, इसलिए उसने बड़ा दिल रखते हुए कहा कि ‘हम नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़े हैं और चुनाव प्रचार में हमारा चेहरा भी वही थे। इस वजह से वही मुख्यमंत्री पद संभालेंगे।’
इस भरोसे को बनाए रखते हुए जब बिहार में मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण हुआ तो नीतीश ने दोनों उपमुख्यमंत्री पद भाजपा को देने उचित समझे। ये तो सभी को पता है कि नीतीश सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं, ‘भाजपा का मुख्यमंत्री हो’ वाला बयान उन्होंने इसलिए दिया था क्योंकि जेडीयू का प्रदर्शन बहुत गया-गुज़रा था।
मन में भलेच ही यही रहा होगा कि मुख्यमंत्री तो मैं ही बनूंगा फिर चाहे 2015 की राह पर चलकर अपने धुर-विरोधी आरजेडी संग ही सरकार क्यों न बनानी पड़े, लेकिन भाजपा की ओर से नरमी और सीधा नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने की कवायद ने मानों नीतीश को संजीवनी दे दी।
आरजेडी और जेडीयू, यह दोनों पार्टियां हमेशा से अपनी दोस्ती और दुश्मनी के चलते चर्चाओं में बनी रही हैं। अब तक लालू प्रसाद यादव की अनुपस्थिति में RJD संभाल रहे लालू के दोनों बेटे तेजप्रताप और तेजस्वी, नीतीश को उग्र होते हुए सदन और सदन के बाहर घेरते थे। जब से लालू यादव जेल से बाहर आए हैं, उनके दोनों बेटों की नीतीश के प्रति बढ़ती नरमदिली शायद लालू का ही दिया ज्ञान होगा। क्रमशः इन सभी घटनाओं और आरजेडी-जेडीयू की सहमति पुनः राज्य में नए समीकरण स्थापित करने की ओर कदम बढ़ा सकती है, जोकि निश्चित ही नीतीश कुमार के लिए घातक सिद्ध होगा।
नीतीश की बढ़ती असहमति और असंतोष 2015 की तरह भाजपा के लिए बड़ा सिर दर्द बने उससे पहले भाजपा अपनी सियासी बिसात भुनाने में लग चुकी है। जेडीयू के अलावा अन्य सहयोगी दलों में जीतनराम मांझी के हिंदुस्तान आवाम मोर्चा और मुकेश सहनी के वीआईपी की नाराजगी भी बहुत बढ़ चुकी है, जिसको अब भाजपा सही करने में लगी हुई है।
मांझी और सहनी दोनों की अपेक्षाएँ पूरी न होने की वजह से दोनों ने बगावती तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। हाल ही में बिहार सरकार के पशुपालन एवं मत्स्य संसाधन मंत्री मुकेश सहनी ने बिहार विधानमंडल का मानसून सत्र शुरू होते ही नीतीश सरकार को बड़ा झटका दिया है। उन्होंने मंत्रिमंडल की बैठक में जाने से किनारा कर लिया, वहीं मांझी मंत्री पद से उनकी पार्टी को उपेक्षित करने पर अपनी पीड़ा व्यक्त कर चुके हैं।