देश के तीसरे सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य बिहार की आर्थिक स्थिति अफ्रीकी देश केन्या जैसी है। बिहार अर्थव्यवस्था के आकार के हिसाब से भारत में राज्यों के बीच 14वें स्थान पर है। बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन के कई कारण हैं, जिनमें ऐतिहासिक और राजनीतिक दोनों प्रकार के कारक शामिल हैं। आज कई ऐसे बिहारी हैं जो बिहार के बाहर जाकर व्यापारिक सफलता प्राप्त कर रहे हैं, किन्तु बिहार में आकर निवेश नहीं करना चाहते। इसका बड़ा कारण वर्तमान समाजवादी राजनीति है।
बिहार के आर्थिक रूप से पीछे रहने का कारण बिहारियों की अक्षमता नहीं है बल्कि समाजवादी नीतियाँ तथा अपराध है। ब्रिटिश शासन में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जमीदारी प्रथा लागू थी, बड़े भूखंडों पर जमीदारों को ‘कर वसूली’ का ठेका मिलता था। अपना लाभ और ब्रिटिश मांग दोनों की पूर्ति के लिए जमीदार बड़े पैमाने पर टैक्स लेते। ब्रिटिश शासन में धंधे चौपट हो चुके थे और भारत पूर्णतः कच्चे माल का निर्यात तथा विदेशों में बने हुए सामान का आयात करने वाला देश बन गया था। ऐसे में खेती एकमात्र उद्योग बचा था जिस पर कर का बोझ दिन प्रतिदिन बढ़ता हो गया।
अंग्रेजों के समय जो भी थोड़ा बहुत औद्योगिक विकास हुआ वह सिर्फ समुद्र तटीय क्षेत्रों में हुआ। यही कारण रहा कि महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्य आगे निकल गए। पंजाब एक अपवाद था, जिसे अपने राजनीतिक हितों के लिए अंग्रेजों द्वारा खूब समृद्ध बनाया गया। बाकी उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और बिहार जैसे राज्य पिछड़ते चले गए। आंकड़ों के अनुसार, बिहार में आबादी का 33.74 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे है।
बिहार के पिछड़ेपन का कारण जातिगत राजनीति नहीं है, क्योंकि जाति तो पूरे भारत में राजनीति का आधार है। केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र आदि सभी जगह जाति का समीकरण महत्वपूर्ण होता है। बिहार के पिछड़ेपन का कारण उसके नेताओं का सोशलिस्ट यानि समाजवादी माइंडसेट है।
बिहार का वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व जे पी आंदोलन की उपज है। लालू, सुशील मोदी से लेकर, नीतीश तक, सभी नेता सोशलिस्ट विचार के हैं।
यही कारण है कि न तो पूंजीवाद को बढ़वा मिलता और न ही निवेशकों को प्रोत्साहित किया जाता। बिहार के लोगों को किसी अन्य राज्य में जाकर व्यापार करना मजबूरी हो जाता हैं। एक तरफ जहां लालू ने अपने कार्यकाल में बिहार को अपराध का गढ़ बना दिया था तो वहीं नीतीश कुमार ने अपने कार्यकाल के पहले कुछ वर्षों में विकास कार्य करने के बाद खाली हाथ ही बैठे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री यह नहीं सोचते कि उन्हीं की भूमि पर जन्में वेदांता ग्रुप के चेयरमैन अनिल अग्रवाल जब तमिलनाडु से अपना प्लांट देश के दूसरे राज्य में स्थानांतरित कर रहे थे, तो उन्होंने बिहार को एक विकल्प क्यों नहीं माना। न ही बिहार के किसी नेता ने उनसे अनुरोध किया कि वह बिहार में निवेश करें।
यह समाजवादी सोच ही है जिसके वजह से बिहार के मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश या गुजरात की तरह बड़े पैमाने पर कोई ऐसा सम्मेलन नहीं बुलाते जिसमें देश विदेश के उद्योगपति आमंत्रित हों। बिहार में ‛इज ऑफ डूइंग बिजनेस’ का स्तर भी जस का तस बना हुआ है। बिहार की जो थोड़ी बहुत आर्थिक तरक्की हुई है वह कृषि के विकास के चलते ही हुई है। नीतीश ने अपने शासन के महत्वपूर्ण 16 वर्ष में न तो कभी निवेश को प्रोत्साहित किया और न ही निवेशकों को आकर्षित करने के लिए कोई कदम उठाया। पिछले वर्ष जब कई कंपनियाँ चीन छोड़कर भारत आने की उत्सुकता दिखा रही थीं तब नीतीश ने इन कंपनियों से संपर्क करने की भी जहमत नहीं उठाई।
आम्रपाली ग्रुप के अनिल शर्मा और एल्केमलैब्स के मालिक सम्प्रदा सिंह बिहारी हैं। एल्केम भारत की पांचवी सबसे बड़ी फार्मास्युटिकल कंपनी है और यह जगजाहिर है कि भारत का फार्मा सेक्टर आने वाले समय में और विस्तार करेगा। किंतु नीतीश बाबू इन विचारों से सर्वथा मुक्त हैं। Dexterity Global के शरद सिंह, सिडनी स्थित ISOFT ग्रुप के CEO अमित कुमार दास, Androidly के सह-संस्थापक सिद्धांत वत्स आदि बिहारी हैं, जो देश विदेश में नाम और धन कमा रहे हैं।
बिहार का कुशल श्रम दूसरे राज्यों को संवृद्ध बना रहा है, लेकिन बिहार में ऐसा कोई मुख्यमंत्री नहीं है जो इसी श्रम का इस्तेमाल करके बिहार का विकास करे। सत्य यह है कि बिहार को पूँजीवादी विचारों वाला कोई मुख्यमंत्री चाहिए। ऐसा मुख्यमंत्री जो बिहार में एक्सप्रेस वे का जाल बिछाकर, बिहार का समुद्र तटीय राज्यों से संपर्क बढ़ाकर, लॉजिस्टिक पार्क में निवेश आकर्षित करके बिहार का आर्थिक विकास करे। परंतु यह तभी संभव है जब कोई मुख्यमंत्री राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ काम करे। बिहार को ऐसे मुख्यमंत्री की आवश्यकता है जिसे वामपंथी-समाजवादी मानसिक रोग से ग्रस्त लोगों के प्रोपोगेंडा का फर्क ना पड़े, तभी बिहार का विकास संभव है। अगर ऐसा नहीं होता है तो बिहार की जनता ‘कोल्हू के बैल’ बन कर रह जाएगी।