आज का दिन भारत के लिए ऐतिहासिक है। आज पहली बार कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनजीए) के बैठक की अध्यक्षता की। इस कुर्सी पर बैठने का सौभाग्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्राप्त हुआ है।
Chairing the UNSC High-Level Open Debate on “Enhancing Maritime Security: A Case For International Cooperation”. https://t.co/cG5EgQNENA
— Narendra Modi (@narendramodi) August 9, 2021
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् सुरक्षा के लिहाज से सबसे बड़ी संस्था है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 15 सदस्य हैं, जिनमें पांच स्थायी सदस्य देश के रूप में चीन, फ्रांस, रूसी संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम शामिल हैं जबकि संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) द्वारा चुने गए 10 गैर-स्थायी सदस्य राज्य हैं। यूएनएससी के लिए हर साल दो साल के कार्यकाल के लिए दस गैर-स्थायी सदस्य चुने जाते हैं। प्रत्येक गैर-स्थायी सदस्य को दो वर्षों के दौरान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के रूप में कार्य करने का अवसर मिलता है, जो समूह का हिस्सा है। यूएनजीए की अध्यक्षता सदस्य देशों के नामों के अंग्रेजी वर्णानुक्रम में अपने सदस्यों के बीच हर महीने बदलती है। भारत का वर्तमान कार्यकाल इस साल 1 जनवरी से शुरू हुआ और 31 दिसंबर, 2023 तक चलेगा।
यूएनजीए अध्यक्षता के क्या लाभ होंगे?
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने समुद्री सुरक्षा और समुद्री अपराध के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की और प्रस्तावों को पारित किया। हालांकि, यह पहली बार होगा जब इस तरह की उच्च स्तरीय खुली बहस में एक विशेष एजेंडा आइटम के रूप में समुद्री सुरक्षा पर समग्र रूप से चर्चा हुई। पीएम मोदी ने समुद्री सुरक्षा को बेहद अहम बताते हुए कहा, ‘महासागर हमारी साझा विरासत हैं और हमारे समुद्री मार्ग अंतरराष्ट्रीय व्यापार की जीवन रेखा हैं। ये महासागर हमारे ग्रह के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं’। पीएम मोदी ने यूएनजीए की अध्यक्षता करते हुए परिषद की बैठक में कहा, “समुद्री सुरक्षा के लिए मैं 5 बुनियादी सिद्धांतों को सामने रखना चाहूंगा। पहला- वैध व्यापार स्थापित करने के लिए बाधाओं को दूर किया जाना चाहिए। दूसरा – समुद्री विवादों का निपटारा शांतिपूर्ण और अंतरराष्ट्रीय कानून के आधार पर ही होना चाहिए।”
पूरी दुनिया जब चीन के समुद्री अतिक्रमण से परेशान है तब समुद्री सुरक्षा पर बात करना एक बड़ा कदम है। विदेश मंत्रालय ने कहा, “समुद्र घाटी सभ्यता के समय से ही महासागरों ने भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमारे सभ्यतागत लोकाचार के आधार पर जो समुद्र को साझा शांति और समृद्धि के प्रवर्तक के रूप में देखता है”।
बता दें कि समुद्री सुरक्षा पर बहस तीन हस्ताक्षर कार्यक्रमों में से पहला है जिसे भारत यूएनएससी अध्यक्ष के रूप में आयोजित कर रहा है। अन्य दो संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना और आतंकवाद-निरोध पर चल रहे हैं। पिछले हफ्ते, अफगानिस्तान की स्थिति पर भारत की अध्यक्षता में एक और बैठक बुलाई गई थी जहां सदस्य देशों ने बिगड़ती स्थिति के बारे में चिंता व्यक्त की और राजनीतिक समाधान का आह्वान किया। इस बिंदु पर चीन ने भी भारत के सुर में सुर मिलाकर अफ़ग़ान स्थिति को बड़ी समस्या माना है। संयुक्त राष्ट्र में अफगानिस्तान के राजदूत गुलाम इसाकजई ने कहा कि अफगानिस्तान अपने दावे के समर्थन में यूएनएससी को भौतिक साक्ष्य प्रदान करने के लिए तैयार है कि पाकिस्तान तालिबान को आपूर्ति श्रृंखला सुनिश्चित कर रहा है। पाकिस्तान ने विशेष बैठक में न्योता न दिए जाने पर नाराजगी जताई। शुक्रवार को यूएनएससी की बैठक के बाद एक प्रेस में, संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के स्थायी प्रतिनिधि, राजदूत मुनीर अकरम ने कहा, “हमने भागीदारी के लिए एक औपचारिक अनुरोध किया था लेकिन इसे अस्वीकार कर दिया गया था।”
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के राष्ट्रपति फेलिक्स- एंटोनी त्सेसीकेदी त्शिलोम्बो और अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन उन विश्व नेताओं में शामिल हैं, जिनके बहस में शामिल होने की उम्मीद है। आज के कार्यक्रम में भाग लेने वाले अन्य नेताओं में नाइजीरिया के राष्ट्रपति मोहम्मद बज़ूम, केन्या के राष्ट्रपति, उहुरू केन्याटा और वियतनाम के प्रधानमंत्री, फाम मिन्ह चिन्ह हैं।
आज भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का नेतृत्व कर रहा है और एक समय ऐसा भी था जब भारत ने नेहरू के राज में UNSC में स्थायी सीट के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।
इस बात का उल्लेख कांग्रेस नेता और संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अवर महासचिव शशि थरूर भी कर चुके हैं। वर्ष 2004 में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि नेहरू ने 1953 में UNSC में स्थायी सीट लेने के लिए भारत ने “अमेरिकी प्रस्ताव को ठुकरा दिया”, और कहा कि इसके बजाय चीन को सीट दी जाए। यहां तक कि अपनी पुस्तक ‘नेहरू – द इन्वेंशन ऑफ इंडिया’ में भी थरूर लिखते हैं कि नेहरू ने सुझाव दिया था कि उस समय तक ताइवान के पास मौजूद सीट बीजिंग को देने की पेशकश की जाए। कथित तौर पर नेहरू के बारे में कहा जाता था कि उन्होंने कहा था कि “इस सीट पर ताइवान की बहुत कम विश्वसनीयता थी।”
इतिहासकार एंटोन हार्डर ने भी स्वीकार किया था कि “चीन के सीट के अधिकार को स्वीकार करके अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में पीपुल रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को एकीकृत करना” वास्तव में “नेहरू की विदेश नीति का केंद्रीय स्तंभ” था।
अगर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने अमेरिका के प्रस्ताव को चीनी प्रेम में न ठुकराया होता तो शायद भारत आज संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य न होता और न ही चीन भारत के कामों में अडंगा डाल पाता।