मोपला दंगे – कैसे एक ‘हिन्दू विरोधी नरसंहार’ को वामपंथियों ने ‘स्वतंत्रता संग्राम’ में परिवर्तित कर दिया

ये कैसा ‘स्वतंत्रता संग्राम’ था, जिसमें हिंदुओं को ही अपना घर छोड़कर भागना पड़ा?

मोपला दंगे

कल्पना कीजिए कि आपके घर में कुछ गुंडे घुस आते हैं। वे तोड़फोड़ करते हैं, आपके परिवार के सदस्यों के साथ बदतमीजी करते हैं, आपके आराध्य, आपके इष्ट देव को हानि पहुंचाते हैं और आपके परिवार को मारते पीटते भी हैं। आप किसी तरह उनका सामना करते हो और उन्हे मार पीटकर भगाते भी हो। लेकिन कुछ लोग उन गुंडों को नायकों के रूप में चित्रित करे, जो ‘होली’ खेल रहे थे, लेकिन जिन्हे आपने पीट-पीट कर भगा दिया, तो आपको कैसा लगेगा? लेकिन कुछ ऐसा ही हुआ है, मोपला दंगे के साथ। हाल ही में केंद्र सरकार ने उन लोगों का महिमामंडन करना बंद कर दिया है, जो 1921 के कुख्यात मोपला दंगे में लिप्त थे। केंद्र सरकार ने स्वतंत्रता संग्राम में हुतात्मा होने वाले वीर सेनानियों की सूची में से उन 387 सेनानियों के नामों को हटाने का निर्णय किया है, जो मोपला दंगे में संलिप्त थे।

लेकिन ये मोपला दंगे थे क्या, और ऐसा भी क्या किया वामपंथियों ने, जिसके कारण वे कोपभाजन का शिकार बने हैं? जिस नरसंहार की निंदा के लिए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर तक को अपनी आवाज उठानी पड़ी हो, जो आम तौर पर हिन्दुत्व के धुर विरोधी माने जाते थे, तो आप समझ जाइए कि ये नरसंहार कितना भयावह और गंभीर था, जिसे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जानबूझकर हमसे छुपाया गया और जिसका मोहनदास करमचंद गांधी जैसे नेताओं ने महिमामंडन करने तक का प्रयास किया।

1921 में कथित तौर पर असहयोग आंदोलन के दौरान केरल में ‘मालाबार विद्रोह’ (मोपला दंगे) हुआ था, जिसे महात्मा गांधी ने समर्थन भी दिया था। NCERT की इतिहास की किताबों में इसे स्वतंत्रता संग्राम का भाग कहकर पढ़ाया जाता है, लेकिन वास्तव में वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक विद्रोह न होकर हिंदुओं का नरसंहार था, जिसमें मप्पिला मुस्लिमों व उनके नेताओं ने मिल कर 10,000 से भी अधिक हिन्दुओं का नरसंहार किया था। 1921 में लगभग 6 महीनों तक ये कत्लेआम चलता रहा था।

इन दंगाइयों का सरगना था वरियमकुन्नथु या चक्कीपरांबन वरियामकुन्नथु कुंजाहम्मद हाजी (Variyam Kunnathu Kunjahammed Haji), जो खुद को ‘अरनद का सुल्तान’ कहता था। वो मालाबार में ‘मलयाला राज्यम’ नाम से एक इस्लामी सामानांतर सरकार चला रहा था। इसे नीति कहिए या परम आश्चर्य, परंतु इन्ही कार्यों के पीछे अंग्रेजों ने उसे मौत की सज़ा दी थी। हाजी एक ऐसे परिवार से आता था, जो हिन्दू प्रतिमाएँ ध्वस्त करने के आदी थे। उसके अब्बा ने भी कई दंगे किए थे, जिसके बाद उसे मक्का में प्रत्यर्पित कर दिया गया था।

और पढ़ें : मोपला में हिंदुओं का नरसंहार करने वाले हाजी और अन्य हत्यारों का छीन जाएगा स्वतंत्रता सेनानी टैग

मोपला दंगे हिन्दू नरसंहार के बारे में वामपंथी इतिहासकार कहते हैं कि ये अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह था। अगर ऐसा था, तो इसमें मंदिर क्यों ध्वस्त किए गए थे? अगर ये ‘स्वतंत्रता संग्राम’ था, तो भारत के ही लोगों को अपनी ही धरती छोड़ कर क्यों भागना पड़ा था जिहादियों के डर से? वामपंथी इसे ‘मप्पिला मुस्लिमों का सशस्त्र विद्रोह’ कहते हैं। अगर ये विद्रोह था तो इसमें सिर्फ मुस्लिम ही क्यों थे? बाकी धर्मों के लोग क्यों नहीं?

1921 में दक्षिण मालाबार में कई जिलों में मुस्लिमों की जनसंख्या सबसे ज्यादा थी। कुल जनसंख्या का वो 60% थे। इसी समय असहयोग आंदोलन के दौरान मोहनदास करमचंद गांधी ने मुस्लिमों का ‘विश्वास जीतने’ के लिए ‘खिलाफत आंदोलन’ को काँग्रेस का समर्थन दिलाया। ‘खिलाफत’ आंदोलन ऑटोमन साम्राज्य को पुनः बहाल करने के लिए किया गया था।

परंतु न भारत को तब तुर्की से कोई लेनादेना था और न ही ऑटोमन साम्राज्य से। लेकिन, महात्मा गाँधी ने मुस्लिमों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए उनके एक ऐसे अभियान का समर्थन कर दिया, जिसके दुष्परिणाम हिन्दुओं को भुगतने पड़े। वो 18 अगस्त, 1920 का समय था जब महात्मा गाँधी ‘खिलाफत’ के नेता शौकत अली के साथ मालाबार आए। वो ‘असहयोग आंदोलन और खिलाफत’ के लिए ‘जागरूक’ करने आए थे, लेकिन हुआ ठीक उल्टा। ‘खिलाफत’ की आग में मोपला मुस्लिमों ने हिन्दुओं का बहिष्कार शुरू कर दिया।

हिन्दुओं को निशाना बनाया गया। उनकी घर-सम्पत्तियों व खेतों को तबाह कर दिया गया। कइयों का जबरन धर्मांतरण करा दिया गया। कांग्रेस पार्टी ने अंग्रेजों पर दोष मढ़ कर इतिश्री कर ली। हिन्दुओं को बचाने कोई नहीं आया। परंतु वामपंथियों की पौ बारह थी। सौम्येन्द्रनाथ टैगोर जैसे कम्युनिस्ट नेताओं ने इसे ‘जमींदारों के खिलाफ विद्रोह’ बताया।

इतिहासकार स्टेफेन फ्रेडरिक डेल ने स्पष्ट लिखा है कि ये ‘जिहाद’ था। उनका कहना है कि यूरोपियनों व हिन्दुओं से लड़ते हुए ‘जिहाद’ की प्रकृति तो मोपला मुस्लिमों में काफी पहले से थी। उनका कहना था कि आर्थिक स्थिति से इस नरसंहार का कोई लेनादेना नहीं था। देश में कई ‘किसान आंदोलन’ हुए, लेकिन ऐसे आंदोलन में धर्मांतरण का क्या काम?

 

मोपला दंगे कितने भयावह थे, इसका अंदाज़ा आप बाबासाहब भीमराव आंबेडकर के विचारों से ही लगा सकते हैं। अपने आप को हिन्दू विरोधी कहने वाले डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘Pakistan or The Partition of India’ में स्पष्ट लिखा कि मोपला दंगे दो मुस्लिम संगठनों द्वारा किये गए, जिनके नाम थे – ‘खुद्दम-ए-काबा (मक्का के सेवक)’ और सेन्ट्रल खिलाफत कमिटी। उन्होंने लिखा है कि दंगाइयों ने मुस्लिमों को ये कह कर भड़काना शुरू किया कि अंग्रेजों का राज ‘दारुल हर्ब (ऐसी जमीन जहाँ, अल्लाह की इबादत की इजाजत न हो)’ है और अगर वो इसके खिलाफ लड़ने की ताकत नहीं रखते हैं तो उन्हें ‘हिजरत (पलायन)’ कर चाहिए। आंबेडकर ने लिखा है कि इससे मोपला मुस्लिम भड़क गए और उन्होंने अंग्रेजों को भगा कर इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए लड़ाई शुरू कर दी।

डॉक्टर अंबेडकर आगे ये भी लिखते हैं, “अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई को तो जायज ठहराया जा सकता है, लेकिन मोपला मुस्लिमों ने मालाबार के हिन्दुओं के साथ जो किया वो विस्मित कर देने वाला है। मोपला के हाथों मालाबार के हिन्दुओं का भयानक अंजाम हुआ। नरसंहार, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों को ध्वस्त करना, महिलाओं के साथ अपराध, गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़े जाने की घटना, ये सब हुआ। हिन्दुओं के साथ सारी क्रूर और असंयमित बर्बरता हुई। मोपला मुस्लिमों ने हिन्दुओं के साथ ये सब खुलेआम किया, जब तक वहाँ सेना न पहुँच गई।”

लेकिन इनके दोषियों को आज भी लोग ‘हुतात्माओं’ की श्रेणी में गिनते हैं, और अभी हाल ही में केरल विधानसभा के अध्यक्ष एमबी राजेश ने निर्लज्जता की सभी सीमाओं को लांघते हुए इन दंगाइयों के सरगना, कुन अहमद हाजी की तुलना वीर क्रांतिकारी भगत सिंह से की थी।

लेकिन अब ये नीच दंगाई स्वतंत्रता सेनानी नहीं कहलाएँगे। केंद्र सरकार ने हाल ही में हुतात्माओं की सूची के पांचवें वॉल्यूम की तीन सदस्यीय समिति द्वारा समीक्षा की थी। इसमें इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टॉरिकल रिसर्च (ICHR)’ ने मोपला नरसंहार के दोषियों नाम हटाने की सिफारिश की थी। समिति के अनुसार, ‘मालाबार विद्रोह’ कभी अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध था ही नहीं, बल्कि ये एक कट्टरवादी आंदोलन था जिसका मुख्य उद्देश्य था इस्लामी धर्मांतरण। समिति ने नोट किया कि इस पूरे ‘विद्रोह’ के दौरान ऐसे कोई भी नारे नहीं लगाए गए, जो राष्ट्रवादी हों या फिर अंग्रेज विरोधी हों। जिस प्रकार से केंद्र सरकार देश के इतिहास को एक नई राह देने के लिए उद्यत है, उस दिशा में ये एक सराहनीय निर्णय है, जिसके बेहद लाभकारी परिणाम भविष्य में देखने को मिलेंगे।

 

Exit mobile version