1996 में, UAE और सऊदी तालिबान का समर्थन करने वाले पहले देश थे, इस बार ऐसा नहीं होगा

तालिबानी शासन

अशरफ गनी और अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद तालिबान औपचारिक रूप से शासक है। अफगानी आवाम ने बलपूर्वक ही सही पर तालिबानी शासन को स्वीकार कर लिया। लेकिन, विश्व ने अभी मान्यता नहीं दी है। ऊपर से अमेरिका और सहयोगी देश तालिबानी शासन पर हमलावर है। 3200 करोड़ रुपये की राशि को आईएमएफ ने फ्रीज़ कर दिया है। चीन और पाकिस्तान को छोड़कर किसी ने भी तालिबान के शासन के प्रति सकारात्मक रुख नहीं दिखाया है। हालांकि, तालिबान विश्व समुदाय को चीख चीख कर इस बात का भरोसा दिला रहा है कि उसे अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देश चलाने का अधिकार है।

शरीया कानून मे स्त्रियों के अधिकार और मानवाधिकार सुरक्षित रहेंगे। किसी से बदला नहीं लिया जाएगा, सबको माफ कर दिया गया है। परंतु, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय 1990 के दशक के तालिबानी शासन को अभी भूल नहीं पाया है। तालिबान को पता है कि जब तक विश्व को उसपर विश्वास नहीं होगा तब तक उसके शासन को मान्यता नहीं मिलेगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमान्य और अवैध तालिबानी शासन अफगानिस्तान को ज्यादा दिन नहीं चला पाएगा। अतः वो विश्व बिरादरी कम से कम मुस्लिम मुल्कों से मान्यता लेने के लिए छटपटा रहा है।

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1996 में, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब पाकिस्तान के अलावा एकमात्र देश थे, जिन्होंने अफगानिस्तान में तालिबान सरकार या अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात को वैध के रूप में मान्यता दी थी। हालाँकि, इस बार, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के इरादे  बहुत अलग हैं। हालांकि, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने तालिबान के इस कृत्य की कोई भर्त्सना नहीं की है, लेकिन वो खुल के उनके समर्थन में भी नहीं आना चाहता। संयुक्त अरब अमीरात ने मानवीय आधार पर अपदस्थ राष्ट्रपति अशरफ गनी को शरण तो दी लेकिन आबू धाबी मे उनकी मौजूदगी सिर्फ एक अनुमान है। हालांकि, संयुक्त अरब अमीरात ने तालिबान का विरोध नहीं किया है, लेकिन 1996 के तालिबानी शासन के समय जो समर्थन का सुर था वो अब नहीं है।

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि रियाद अभी भी “अफगान लोगों” द्वारा निकाले गए समाधान का समर्थन कर रहा है। सऊदी अरब के विदेश मंत्रालय ने कहा, “हम उन विकल्पों के साथ खड़े हैं जो अफगान लोग बिना किसी हस्तक्षेप के चुनते हैं।” मंत्रालय ने कहा, “इस्लाम के महान सिद्धांतों के आधार पर सऊदी अरब को उम्मीद है कि तालिबान आंदोलन और सभी अफगान पार्टियां सुरक्षा, स्थिरता, जीवन और संपत्ति की रक्षा के लिए काम करेंगी।”मुस्लिम दुनिया के किंग कहे जाने वाले सऊदी अरब से तालिबान ने जो कुछ भी निकालने में कामयाबी प्राप्त की है उसमें हिदायत और सावधानी के शब्द है अर्थात, अफगानिस्तान के लोगों द्वारा लिए गए विकल्पों में हस्तक्षेप न करने का निर्देश।

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सऊदी अरब और UAE के इस तरह के बर्ताव के पीछे ठोस कारण है। बीते वक़्त में सऊदी अरब और अरब अमीरात अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के दबाव में समवेशी इस्लामिक शासन को स्वीकार करने लगे हैं। उन्हें सार्वभौमिक मुस्लिम भाईचारा की मिथ्या का भान हो गया है। अतः वो अब आर्थिक विकास, अंतर्राष्ट्रीय संबंध और राष्ट्रहित को ज़्यादा अहमियत देने लगे है। यूएसए और यूएई दोनों अमेरिका के सहयोगी है। अपने देश की सुरक्षा, आर्थिक मदद, रणनीतिक सहयोग के लिए बहुत हद तक आश्रित भी हैं। दोनों देश तालिबानी शासन को मान्यता देकर अमेरिका की नाराजगी मोल नहीं लेंगे। ये दोनों देश बदलते वैश्विक समीकरण के अनुसार भारत को पाकिस्तान से ज़्यादा महत्व देते हैं। कश्मीर मसले पर ओआईसी की उदासीनता को देखकर पाकिस्तान तुर्की और मलेशिया के साथ मिलकर सऊदी के नेतृत्व को चुनौती देने का दुस्साहस किया। शायद इसीलिए सऊदी पाकिस्तान समर्थित तालिबान के बजाय अमेरिका और अफगान समर्थित गनी के पीछे खड़ा है। संयुक्त अरब अमीरात ने भी गनी सरकार और तालिबान के बीच मध्यस्थता कर शांति समझौता कराने की कोशिश की, लेकिन तालिबान के सामने उनकी एक भी न चली। संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब समझते हैं कि तालिबान का समर्थन करना एक बहुत बड़ा जुआ है, जो किसी भी क्षण उलटा पड़ सकता है। चीन और पाकिस्तान पहले ही यह गलती कर चुके हैं और अरब अब यह गलती नहीं करेंगे। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की अनिच्छा महत्वपूर्ण है, क्योंकि कई मुस्लिम राष्ट्र तालिबान से सुरक्षित दूरी बनाए रखेंगे क्योंकि संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे दो बड़े मुस्लिम राष्ट्र ही इसके वजूद को स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

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अंततः अगर इस प्रकरण के सार को समझें तो इन दोनों मुस्लिम राष्ट्र के उदासीनता के पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण है जैसे अमेरिका, वैश्विक समीकरण, पाकिस्तान से मतभेद, दक्षिण एशिया का परिदृश्य, आर्थिक और राष्ट्रीय हित।

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