केरल में आयुर्वेद का इतिहास बहुत पुराना है। सदियों से आयुर्वेद की शिक्षा के लिए पूरे भारतवर्ष से विद्यार्थी केरल जाते रहे हैं। केरल की विशेष भौगोलिक परिस्थितियां विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियों को उपजाने के लिए बहुत अच्छी हैं। यहां तक कि आज भी आयुर्वेद से जुड़े टूरिज्म के क्षेत्र में केरल भारत में सबसे सफल राज्यों में एक है, जहां देश-विदेश से लोग आयुर्वेद का लाभ लेने के लिए आते हैं।
हालांकि पिछले कुछ दशकों से केरल में आयुर्वेदिक शिक्षा का प्रभाव घट रहा है जिसका कारण, केरल की राजनीति में प्रभावी हो चुकी इस्लामिक शक्तियां और केरल की कम्युनिस्ट सरकार है। सेक्युलरिज्म के नाम पर इस्लाम को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति, गौमांस भक्षण, भारतीय संस्कृति के प्रति द्वेष भाव ने केरल की इस समृद्ध परंपरा को बहुत हानि पहुंचाई है।
इस समय में भारत के अधिकांश राज्यों ने कोरोना को नियंत्रित कर लिया है किंतु केवल दो राज्य ऐसे हैं जो अब तक कोरोना को नियंत्रित नहीं कर सके हैं। इनमें पहला नाम महाराष्ट्र और दूसरा केरल का है। महाराष्ट्र में कोरोना नियंत्रण में इसलिए नहीं आ रहा क्योंकि महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में अक्षम सरकार चला रहा है। वहीं केरल की बात करें तो यहां समस्या सरकारी अकर्मण्यता के साथ ही राज्य की सामाजिक संरचना भी है।
सबसे पहला कारण कम्युनिस्ट सरकार का भारतीय संस्कृति के प्रति शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण है, जिसके कारण सरकार ने कोरोना के घरेलू उपचार से संबंधित एडवाइजरी में आयुर्वेदिक उपचारों का उल्लेख नहीं किया है। जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हिमाचल समेत पूरे भारत में आयुर्वेदिक उपायों ने ही कोरोनावायरस पर विजय दिलाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है।
यहां तक कि आयुर्वेदिक मेडिकल एसोसिएशन ऑफ इंडिया ‛AMAI’ ने केरल सरकार से अनुरोध भी किया था कि कोरोना से संबंधित एडवाइजरी में आयुर्वेदिक दवाओं को भी सम्मिलित किया जाए किंतु कम्युनिस्ट सरकार ने मेडिकल एसोसिएशन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया है।
AMAI के राज्य प्रमुख डॉक्टर राजू थॉमस ने बताया कि “कैटेगरी ए के अधिकांश मरीज, जिन्होंने दवाओं का सेवन किया उनके साथ कोई गंभीर समस्या उत्पन्न नहीं हुई। यहां तक कि यह स्वीकार करने के पश्चात भी की आयुर्वेदिक औषधियां प्रभावी हैं। सरकार ने कोविड-19 के लिए बनी एक्सपर्ट कमेटी में आयुर्वेदिक चिकित्सकों को सम्मिलित नहीं किया है।”
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डॉक्टर थॉमस ने आगे कहा, “चीन, वियतनाम, मेडागास्कर जैसे देशों ने उदाहरण प्रस्तुत किया है कि परंपरागत औषधियों की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसे में जब देश के अधिकांश राज्यों की तुलना में केरल में अभी कोरोना के मामले प्रतिदिन बढ़ रहे हैं, आयुर्वेद को निश्चित ही महामारी के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित किया जाना चाहिए।”
इसे केरल का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि जिस राज्य को आयुर्वेदिक ज्ञान का सौभाग्य प्राप्त है, वह केवल सत्ता में स्थापित एक राजनीतिक दल की विचारधारा के कारण अपने ही ज्ञान का प्रयोग अपने लोगों को बचाने के लिए नहीं कर पा रहा। कम्युनिस्टों की सनक का मूल्य केरलवासियों को चुकाना पड़ रहा है।
इसके अतिरिक्त गौमांस भक्षण ने भी केरल में स्वास्थ्य समस्याओं को उत्पन्न किया है। कई शोध यह बता चुके हैं कि लाल मांस शरीर के लिए कितना हानिकारक है। गौ मांस भक्षण से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होती है। मुस्लिम बाहुल्य उत्तरी केरल में सबसे अधिक गौमांस भक्षण होता है और इसी क्षेत्र में कोरोना के सबसे अधिक मामले देखने को मिल रहे हैं।
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मुसलमानों के अतिरिक्त केरल के ईसाइयों द्वारा भी गौमांस भक्षण किया जाता। दोनों समुदायों की संख्या केरल की 50% है। यही कारण है कि केरल में अब तक कोरोना नियंत्रित नहीं हो सका है।
इसके अतिरिक्त मुस्लिम बहुल इलाकों में कोरोना के अधिक मामले इसलिए भी देखने को मिल रहे हैं क्योंकि मुस्लिम समुदाय की प्रतिरोधी क्षमता अन्य समुदायों की अपेक्षा वैसे भी कम होती है। मुसलमानों में निकट संबंधियों के साथ शारीरिक संबंध बनाने की परंपरा है क्योंकि इस समुदाय में अपने ही परिवार में निकाह किया जा सकता है। इसका सीधा असर नए पैदा होने वाले बच्चों पर देखने को मिलता है। कई शोधों में यह बात सिद्ध की जा चुकी है कि मुसलमानों की इस परंपरा के कारण उनकी जीन पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है किंतु मुस्लिम समुदाय इस परंपरा को छोड़ने को तैयार नहीं है।
हालांकि निकट संबंधियों में निकाह और गौमांस खाने की आदत इतनी जल्दी से नहीं छूटने वाली और ना ही इसका कोई भी शीघ्र परिणाम निकलेगा। ऐसे में कम से कम केरल सरकार यदि आयुर्वेदिक उपचार को कोरोना के विरुद्ध प्रयोग करती है तो यह केरल की आम जनता पर उसका बहुत बड़ा उपकार होगा।