असम के बहादुर राजा पृथु: जिन्होंने बख्तियार खिलजी को युद्ध में धूल चटाई थी

जिस आक्रांता को परास्त कर उन्होंने भारत को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई, उनकी स्मृति में नगर या उत्सव तो छोड़िए, एक शिलालेख भी ढूँढने से नहीं मिलेगा।

पृथु राय कामेश्वर

चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक

कवि माखनलाल चतुर्वेदी की प्रसिद्ध कविता की यह पंक्तियाँ उन वीर योद्धाओं को कोटी-कोटी नमन करती है, जिन्होंने इस मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व अर्पण किया, परंतु विदेशी आक्रान्ताओं और उनकी क्रूरता को कभी हमारे पवित्र भारतवर्ष में पाँव नहीं जमाने दिए। यवनों से लेकर अंग्रेज़ों तक न जाने कितने आघात हमारे पवित्र भूमि ने सहे, न जाने कितने आक्रान्ताओं के अत्याचार की पीड़ा हमारे देशवासियों को झेलनी पड़ी। परंतु समय-समय पर ऐसे योद्धाओं का भी प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने न केवल इन आक्रान्ताओं के अत्याचार को चुनौती दी, अपितु उन्हें परास्त कर माँ भारती को उनके अत्याचारों से मुक्ति भी दिलाई।

जिस वीर ने अपने शौर्य से भारत की गरिमा को अक्षुण्ण भी रखा और तुर्की सल्तनत के विध्वंस की नींव उसके स्थापना के समय ही रख दी। परंतु विडंबना तो देखिए, जिस आक्रांता को परास्त कर उन्होंने भारत को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई, उनकी स्मृति में नगर या उत्सव तो छोड़िए, एक शिलालेख भी ढूँढने से नहीं मिलेगा।

आज भी नालंदा का विध्वंस करने वाले क्रूर और नीच आक्रांता बख्तियार खिलजी की स्मृति में बिहार में एक पूरा नगर स्थित है, परंतु उस कायर को पीठ दिखाकर रणभूमि छोड़ने पर विवश करने वाले वीर सम्राट पृथु राय (कामेश्वर) के स्मृति में कुछ भी नहीं है।

परंतु यह सम्राट पृथु (कामेश्वर) राय कौन थे, और कौन था ये बख्तियार खिलजी, जिसके अत्याचारों से मुक्त कराकर सम्राट कामेश्वर ने भारत भूमि का मान सम्मान अक्षुण्ण रखा? जलपेश्वर के नाम से जन्मे पृथु कामरूप प्रांत के वीर सम्राट थे, जिनकी ख्याति देश के कोने-कोने में व्याप्त थी। ये वही कामरूप है, जिसे आज हम असम के नाम से जानते हैं और जो रामायण, महाभारत और अन्य पुराणों में ‘प्रगज्योतिष्पुर’ के नाम से विख्यात है।

कामरूप का युद्ध क्यों हुआ?

सम्राट पृथु कामेश्वर के नाम से भी प्रसिद्ध थे, क्योंकि उनका कुल कामतेश्वरी देवी [माँ दुर्गा के एक रूप] की आराधना भी करता है। परंतु बख्तियार खिलजी से उनका युद्ध क्यों हुआ? क्यों और किसलिए पूर्वोत्तर के एक योद्धा को एक तुर्की आक्रांता के विरुद्ध शस्त्र उठाने को विवश होना पड़ा?

वर्ष था 1206, यह वो समय था तब तुर्की सल्तनत शनै-शनै भारत पर अपना प्रभाव स्थापित कर रहा था और भारत की संस्कृति का विध्वंस हो रहा था। पृथ्वीराज चौहान की पराजय से जो अभियान प्रारंभ हुआ, उसने शीघ्र ही समूचे उत्तर भारत को अपने नियंत्रण में ले लिया। कुतुब-उद-दीन ऐबक दिल्ली सल्तनत का शासक था और समूचे भारत में तुर्की सल्तनत का प्रभुत्व स्थापित करने का दायित्व उसने बख्तियार खिलजी को सौंपा था।

ईरान के इतिहासकार, सिराजुद्दीन मिनहाज उद्दीन अपने पुस्तक ‘तबाकत ए नासिरी’ में न केवल इस बात की पुष्टि करते हैं कि कैसे क्रूर आक्रांता बख्तियार खिलजी ने भारत का सांस्कृतिक विध्वंस किया है, परंतु इस बात का भी उल्लेख किया है कि कैसे सम्राट कामेश्वर ने न केवल बख्तियार खिलजी के इस क्रूर अभियान को रोका, अपितु उसे परास्त भी किया

विनाश काले विपरीते बुद्धि

सही कहा है किसी ने, विनाश काले विपरीते बुद्धि, अर्थात जब विनाश निकट हो, तो बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है। नालंदा विश्वविद्यालय को ध्वस्त करने और 10000 शास्त्रियों / विद्यार्थियों का नरसंहार करने के पश्चात विजय के मद में चूर बख्तियार खिलजी ने बंगाल की ओर अपने पाँव बढ़ाए। बंगाल में भी वह विजयी सिद्ध हुआ, जिसके पश्चात बख्तियार खिलजी ने अपनी दृष्टि तिब्बत के बौद्ध साम्राज्य पर गड़ाई। परंतु उसपर विजय प्राप्त करने से पूर्व बख्तियार खिलजी को कामरूप और सिक्किम की ‘बाधा’ पार करनी थी।

इसी बीच बख्तियार खिलजी के पापों का समाचार सम्राट कामेश्वर को भी पहुँच गया। परंतु वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने बख्तियार खिलजी को उन्हीं के मोहपाश में परास्त करने की युक्ति खोज निकाली। बख्तियार खिलजी इस बात से परिचित था कि सम्राट कामेश्वर कोई साधारण योद्धा नहीं हैं, इसलिए उसने दक्षिणी तिब्बत पर संयुक्त रूप से आक्रमण का प्रस्ताव रखा।

सम्राट कामेश्वर ने प्रारंभ में इसे स्वीकृत भी किया, परंतु उन्होंने वर्षा ऋतु तक इसपर अपना उत्तर नहीं दिया। उन्होंने उत्तर में बख्तियार खिलजी के दूतों को स्पष्ट कहा कि अभी आक्रमण का सही समय नहीं है। जब तक खिलजी ने सिलीगुड़ी में अपनी छावनी स्थापित की तब तक सम्राट पृथु ने अपनी सेना को इस तरह से सशक्त कर दिया था कि वे किसी भी स्थिति में शत्रु के समक्ष युद्ध करने के लिए सक्षम थे। उन्होंने वर्षा ऋतु को युद्ध के लिए चुना, क्योंकि वे इस बात से परिचित थे कि तुर्की सेना को वर्षा ऋतु, विशेषकर पूर्वोत्तर के क्षेत्र में जीवनयापन करने का कोई अनुभव नहीं है।

किसी भी युद्ध में अनुभव और ज्ञान सबसे महत्वपूर्ण होता है, परंतु तुर्की सेना के पास इन दोनों ही कौशलों का घोर अभाव था। न ही उन्हें पूर्वोत्तर भारत की परिस्थितियों का अनुभव था, एवं न ही वहाँ के समुदायों की सनातन संस्कृति के प्रति निष्ठा का ज्ञान। सम्राट कामेश्वर के एक आह्वान पर राजबंगशी, बोडो समेत अनेक जनजाति एकत्रित हो गए और उन्होंने तुर्कियों को परास्त करने के लिए अंतिम श्वास तक युद्ध करने की ठान ली।

बख्तियार खिलजी ने एक प्रकार से कामरूप पर आक्रमण नहीं किया था, परंतु उसे आकृष्ट किया गया था, जैसे एक चूहे को जाल की ओर आकृष्ट किया जाता है। जब ये सुनिश्चित हो गया कि शत्रु के पास पुनर्गठित होने तथा अन्य शस्त्रों को लाने का कोई साधन नहीं है, तब हर दिशा से सम्राट कामेश्वर के रणबांकुरों ने ब्रह्मपुत्र के तटों के निकट उनपर धावा बोल दिया

बख्तियार खिलजी और उनकी सेना पर रुद्र के गण के समान सम्राट कामेश्वर और उनकी सेना समेत कामरूप के अनेक वीर योद्धा टूट पड़े। जिन्होंने उनके प्रलयंकारी अस्त्रों से बचने का प्रयास करे, वो ब्रह्मपुत्र के वेग में बह गए।

जो बख्तियार खिलजी नालंदा में 10,000 विद्वानों का नरसंहार करके निकला हो, जिस बख्तियार खिलजी ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय का विनाश किया हो, जो मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी 30,000 से अधिक योद्धाओं सहित सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत और तिब्बत पर नियंत्रण जमाने का स्वप्न लिए आया था, उसे माँ दुर्गा के एक अनन्य भक्त ने ऐसा परास्त किया कि वह फिर कभी किसी को मुंह दिखाने योग्य नहीं रहा। सम्राट कामेश्वर ने केवल उसे इसलिए नहीं जीवनदान दिया क्योंकि वे धर्म का पालन करते थे, अपितु इसलिए भी उसे जीवित छोड़ा क्योंकि वह उसके माध्यम से अन्य आक्रान्ताओं को भी एक स्पष्ट चेतावनी देना चाहते थे– यदि पुनः माँ भारती की ओर आँख उठाकर देखा, तो ऐसे ही वीर पृथु हर पग पर आपका स्वागत करने के लिए तैयार मिलेंगे।

वामपंथियों ने इतिहास में नहीं दिया स्थान

बख्तियार खिलजी जीवित तो रहा, परंतु इसके पश्चात उसने कभी किसी राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया। उसकी पराजय से बंगाल में स्थित उसका सेनापति अली मर्दान इतना कुपित हुआ कि उसने बख्तियार का वध करके ही दम लिया। ये वही अली मर्दान था, जिसे अपना धर्म परिवर्तित करने पर कभी बख्तियार खिलजी ने विवश किया था।

परंतु हमारे भारत भूमि की विडंबना देखिए, उसी आक्रांता बख्तियार खिलजी के नाम पर बख्तियारपुर नाम का नगर बसा हुआ है, परंतु हमारे वीर योद्धा पृथु राय के नाम पर नगर तो छोड़िए, शिलालेख भी ढूँढने से नहीं मिलेंगे। ऐसे न जाने कितने वीर होंगे, जिन्होंने भारतवर्ष को अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया लेकिन उनका उल्लेख तक नहीं किया जाता। परंतु अब और नहीं।

Exit mobile version