कांग्रेस में दो-फाड़ की स्थिति पैदा होने से पहले ही असहमति की लौ जलने लगी है। जबसे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मकसद को भुनाने के संकल्प के साथ कथित राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर, सोनिया-राहुल और प्रियंका से मिले हैं, कांग्रेस में तबसे ही सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। जैसे पीके देश के हर विपक्षी दल को एक साथ लाकर ममता के लिए केंद्र की सत्ता का RED CARPET बिछाने में जुटे हुए हैं, उसी प्रकार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता इस फैसले से अपनी असहमति जताने में पीछे नहीं हैं।
दरअसल, बंगाल चुनाव में पुनः सरकार बनाने के बाद से ही ममता उग्र होते हुए स्वयं को आने वाले 2024 आम चुनावों में विपक्ष का एकमात्र चेहरा बनाने की कवायद तेज़ कर रही हैं। उसी क्रम में इस सप्ताह हुए ममता बनर्जी के 5 दिन के दिल्ली दौरे में ममता, मोदी सरकार के हर उस धुरविरोधी से मिलीं, जिसका लक्ष्य केवल प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को हटाना है। ममता ने टीएमसी गठन से पूर्व जिस पार्टी में रहकर अपनी राजनीति शुरू की थी, उसी कांग्रेस के साथ फिरसे नए रास्तों को तलाशते हुए ममता ने सोनिया और राहुल गांधी के आवास पर जाकर उनसे मुलाक़ात की।
यह सब घटनाक्रम तब आगे बढ़ा, जबसे प्रशांत किशोर राजधानी कूच पर आए थे और तमाम विपक्षी नेताओं से मिल रहे थे। ये मुलाकातें ममता बनर्जी के कहने पर की जा रही थीं, क्योंकि पीके बंगाल विधानसभा चुनाव में टीएमसी की जीत के बाद से फिलहाल ममता के सबसे बड़े शुभचिंतक बनके उभरे हैं। उसी का परिणाम है जो पीके, ममता के लिए इन सभी नेताओं को सीढ़ी बनाकर 2024 की पीएम पद की राह आसान करने में लगे हुए हैं।
एक तरफ ममता केंद्र की सत्ता के लिए विपक्षियों के साथ खेला करने की योजना बना रही हैं, तो वहीं कांग्रेस का रुख इस पर बेहद नरम दिखाई पड़ रहा है, मानों जैसे कांग्रेस की ओर से यह स्पष्ट है कि अबकी बार कांग्रेस का “हाथ”, ममता के “साथ” हो चला है।
कांग्रेस में अंदरखाने यह खबर भी चल रही है कि राहुल और सोनिया गांधी के अलावा प्रियंका वाड्रा भी ममता को विपक्ष का चेहरा बनाने में सहमति व्यक्त कर चुकी हैं, लेकिन ये बात फिलहाल गांधी परिवार के भीतर तक ही है।
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वहीं इस सियासी उठापटक के बीच कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली ने इस संदर्भ में जो बयान दिया है, यदि उसे सोनिया गांधी समझने में अक्षम रहती है तो यह उन्हीं के लिए घाटे का सौदा होगा। वीरप्पा मोइली ने कहा है कि, ‘अगर मोदी के विरोध के नाम पर विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश की गई तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल साबित होगी।’
कांग्रेस नेता के इस बयान से कई और दल के नेता भी सहमत नजर आ रहे है। यहां तक कि कुछ विपक्षीय दलों का मानना है कि आम चुनावों के लिए विपक्ष को एकजुट करना जल्दबाजी होगी। इससे यह साबित होता है कि वीरप्पा मोइली ने जो कहा है वो किन्हीं तथ्यों पर आधारित है, न कि मात्र हवा में छोड़ा गया तीर है।
पिछले वर्षों में, जो गठबंधन भी पीएम मोदी के विरोध में उपजा, उसका सुपड़ा साफ ही हुआ है। फिर चाहे वो 2014 आम चुनाव की बात हो, या 2017 में देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जिसमें कांग्रेस और सपा एक साथ राज्यों के मुद्दे पर नहीं मोदी विरोध में चुनाव लड़ रही थी, जिसका परिणाम इन दोनों स्वयंघोषित “यूपी के दो लड़कों की जोड़ी” राहुल और अखिलेश को करारी हार का सामना करके मिला।
वहीं, देश ने एक तस्वीर कर्नाटक में वर्ष 2018 में कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री शपथग्रहण में देखी थी, जिसमें देश के तमाम विपक्षी दल एक साथ आए और शक्ति प्रदर्शन करके ये जता रहे थे कि ‘हम एक हैं।’ वो बात अलग है कि यह एकता बरकरार न रही पर कुमारस्वामी की सरकार मात्र 14 महीने भी न टिक सकी और जुलाई 2019 में एच डी कुमारसवामी की सरकार गिर गयी।
ऐसा ही एक महागठबंधन बिहार में कुछ सांसें ले पाया था जिसमें आरजेडी और जेडीयू की सरकार 2015 में बनी पर 2017 तक वो भी धराशायी हो गयी थी। इससे यह साफ होता है कि जब-जब विपक्ष ने मोदी विरोध में चुनाव लड़ा, तब-तब उसे मुंह की खानी पड़ी है।
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तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी भले ही अपनी दिल्ली यात्रा को सफल बता रही हों और विपक्ष को एकजुट करने की बात कर रही हों लेकिन उनकी इन कोशिशों पर अब विपक्ष ने ही सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं।
वीरप्पा मोइली ने अपने बयान में आगे कहा कि, ‘विपक्ष का एजेंडा मोदी विरोधी न होकर जनता के सामने बेहतर विकल्प पेश करना होना चाहिए। विपक्षी दलों को मिलकर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करना चाहिए, जिसके जरिए वह लोगों को एक बेहतर विकल्प पेश करने का भरोसा दे सकें।’
अब अगर कांग्रेस पार्टी और विशेषकर सोनिया और राहुल गांधी, वीरप्पा मोइली जैसे अपने वरिष्ठ नेताओं की बात को अनसुना कर फिरसे मोदी विरोधी राग अलापते हुए कोई भी गठबंधन बनाते हैं, तो वो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा कदम होगा। जिन फैसलों से पूर्व में वर्ष 2014 से 2021 तक के बीच कांग्रेस को इतनी सियासी मार झेलने को मिली है उससे सीख न लेते हुए उसे दोहराना बेवकूफी ही है।