विश्व में कोरोना महामारी ने लाखों लोगों का जीवन समाप्त कर दिया। इसने तमाम सामाजिक असमानताओं को जन्म दिया, वहीं दूसरी ओर डिजिटलीकरण को भी बढ़ाया। ग्लोबल अर्थव्यवस्था में स्वदेशी के विचार को प्राथमिकता मिलने लगी। कहने का मतलब यही है कि इस महामारी ने पूरी दुनिया की व्यवस्था और विचारों को उलट पलट दिया है। केवल एक बात जिसपर इस महामारी से रत्ती भर भी अंतर नहीं पड़ा तो वह है मुस्लिम कट्टरपंथ। मुस्लिम कट्टरपंथ, कोरोना से भी घातक संक्रमण है, यह समाज के हर वर्ग के लिए खतरा है। इसका एक बड़ा विभत्स उदाहरण वैक्सीन और चिकित्सीय सुविधाओं के प्रति मुस्लिम समुदाय के दृष्टिकोण में उजागर हुआ है।
दुनियाभर में जब वैक्सीनेशन शुरू हुआ तो मुस्लिम लोगों ने पहला प्रश्न यह उठाया कि वैक्सीन हलाल है या हराम, अर्थात क्या वैक्सीन निर्माण में इस्लामिक नियमों का पालन हुआ है अथवा नहीं। यह बात अलग है कि जब इस्लाम का उदय हुआ था तब अरब में विज्ञान आसमान की ऊँचाई पर था, ऐसा नहीं है। इस्लाम की पृष्टभूमि भेड़ और ऊँट के कबीले से जुड़ी है। लेकिन फिर भी इस्लामिक नियमों को मुस्लिम समाज विज्ञान के नियमों पर तरजीह देता है। जब दुनिया वैक्सीन बनाने की जुगत में थी, तब मौलानाओं ने फतवा जारी किया कि वैक्सीन निर्माण में पोर्क अर्थात सुअर के मांस से तैयार जिलेटिन इस्तेमाल न हो। इंडोनेशिया के मुस्लिम चीनी वैक्सीन को हलाल का सर्टिफिकेट देने लगे। जिलेटीन का इस्तेमाल वैक्सीन को अधिक समय तक खराब होने से बचाने के लिए किया जाता है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि पोर्क जिलेटिन के अतिरिक्त ऐसी अन्य तकनीक नहीं विकसित हुई है जिससे वैक्सीन की आयु बढ़ाई जा सके, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि वैक्सीन इस समय प्राण बचाने का एकमात्र उपाय है, ऐसे में पोर्क फ्री वैक्सीन की शर्त उचित है।
इसका सबसे बुरा परिणाम आम मुसलमानों पर पड़ता है। जो मौलाना और मजहबी संगठन वैक्सीन न लेने का फतवा देते हैं, वे आर्थिक रूप से इतने संपन्न हैं कि समय आने पर अपना इलाज करवा सकें, कई मामलों में तो ऐसे मजहबी लोगों ने पहले ही वैक्सीन लगवा ली लेकिन आम लोगों को ऐसा करने से न सिर्फ रोका, बल्कि वैक्सीन को लेकर भ्रम भी फैलाया। यही काम मुस्लिम परस्त नेताओं ने भी किया। जैसे समाजवादी पार्टी ने वैक्सीन को लेकर बड़ा दुष्प्रचार किया लेकिन उसी के नेता अखिलेश ने वैक्सीन लगवा ली। जबकि आम मुस्लिम उनके फैलाये भ्रम का शिकार हो गया है।
ये हाल उत्तर प्रदेश का ही नहीं है, बिहार में भी मुस्लिम वैक्सीन नहीं ले रहे क्योंकि उन्हें भय है कि यह भाजपा की वैक्सीन उनकी प्रजनन क्षमता को समाप्त कर देगी। ऐसा नहीं है कि केवल उत्तर भारत का ये हाल है। सबसे पढ़े लिखे होने का दम भरने वाले राज्य केरल में भी मुसलमानों की यही स्थिति है। मामल्लपुरम में मुस्लिम बहुल इलाकों में वैक्सीन को लेकर भ्रम की स्थिति है, जिससे वहाँ बड़ी संख्या में लोग मर रहे हैं। केरल में कोरोना के बढ़ने का एक कारण यह भी हो सकता है कि वहाँ बड़ी संख्या में रहने वाले मुसलमानों ने आधुनिक चिकित्सा और वैक्सीन, दोनों को नकार दिया है।
ऐसा भी नहीं है कि यह हाल केवल भारत या दक्षिण एशिया का ही है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे दक्षिण एशियाई देशों में मुस्लिम आबादी का वैक्सीन के प्रति जो दृष्टिकोण है, वही दृष्टिकोण अमेरिका में भी है। अमेरिका में भी इस्लामिक नेता और संगठन लोगों को मजहबी कारणों से वैक्सीन पर भरोसा करने से रोक रहे हैं। उनका कहना है कि उनका मजहब तब तक किसी बात को स्वीकार नहीं करता जबतक उसकी पुख्ता जानकारी न हो।
मुस्लिम समाज के लिए यह कोई नई बात नहीं है। ऐसा ही प्रोपोगेंडा पोलियो की वैक्सीन को लेकर चलाया गया था। यहाँ तक कि पाकिस्तान में तो आतंकी संगठनों ने बाकायदा पोलियो वैक्सीनेशन के बहिष्कार का आह्वान भी किया। वैक्सीनेशन को लेकर इतना अविश्वास है कि पाकिस्तान में पोलियो वैक्सीन लगाने गई टीम को पुलिस संरक्षण की आवश्यकता पड़ती है। अगस्त की शुरुआत में ही यह समाचार मिला कि एक व्यक्ति ने एक पुलिसकर्मी की गोली मारकर हत्या कर दी, क्योंकि वह पोलियो टीम को संरक्षण दे रहा था। ऐसे ही कुछ दिनों पहले दो पुलिसकर्मियों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, क्योंकि वह पोलियो टीम को सुरक्षा दे रहे थे। ऐसे में पिछले महीने, पाकिस्तान को अपना पोलियो अभियान कर्मचारियों पर लगातार हो रहे जानलेवा हमलों के कारण स्थगित करना पड़ा था। इससे आप समझ सकते हैं वैक्सीनेशन को लेकर जागरूकता मुसलमानों में कितनी कम है।
मुस्लिम कट्टरपंथ का उत्पात हमें कोरोना की शुरुआत में ही देखने को मिला था जब टेस्टिंग के लिए जाने वाले चिकित्साकर्मियों पर हमले होते थे। दिक्कत यह है कि समाज इस विचार से लड़ने के बजाए पलायन का मार्ग खोजता है। बजाए पोर्क फ्री वैक्सीन पर काम करने के, कट्टरपंथी शक्तियों को दबाने पर काम होता तो और सुखद परिणाम सामने आ सकते थे।