मुफ़्ती और अब्दुल्लाह तालिबान की जीत से पगला गये हैं

कट्टर धर्मांधता ने इनके मन से राष्ट्रवाद, लोकतन्त्र, संविधान, स्वतन्त्रता और समानता के सारे सिद्धांतों निकाल कर फेंक दिया है!

महबूबा मुफ़्ती तालिबान

जब से तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा जामाया है तब से भारत में कई तालिबान समर्थक देखने को मिले हैं। इन समर्थकों में से अधिकतर वे लोग अधिक हैं जो भारतीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने के बाद से ही महबूबा मुफ़्ती और  फारुख अब्दुल्ला अप्रासंगिक हो चुके हैं और अब तालिबान के समर्थन में बयान दे कर अपने आप को किसी भी तरह चर्चा में रखना चाहते हैं। हालांकि, महबूबा मुफ़्ती को एक बार फिर से नजरबंद कर लिया गया है।

दरअसल, तालिबान के संदर्भ में महबूबा मुफ़्ती ने बयान दिया कि,‘’तालिबान एक हकीकत बनकर सामने आ रहा है। पहली बार उनकी जो छवि बनी है वो इंसानों के खिलाफ थी। अबकी बार वो फिर से आए हैं और अफगानिस्तान में हुकूमत करना चाहते हैं, तो उन्हें जो असली शरिया कहता है, जो हमारे कुरान शरीफ में है, जो बच्चों और औरतों के अधिकार हैं, जो मदीने का हमारा मॉडल रहा है कि किस तरह से शासन करना चाहिए, तो अगर वो वाकई उसपर अमल करते हैं तो वो दुनिया के लिए मिसाल बन सकते हैं। अगर वो उस पर अमल करेंगे तो जो दुनिया के देश हैं, उनके साथ कारोबार भी कर सकते है।‘’

वहीं फारूक अब्दुल्ला ने भी कुछ इसी तरह का बयान दिया। उन्होंने कहा, ‘’तालिबान को अफगानिस्तान में इस्लामिक नियमों के आधार पर शासन करना चाहिए, दुनिया के सभी देशों के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने चाहिए। वह उम्मीद करते हैं कि तालिबान हर किसी से इंसाफ करेगा।‘’

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इस पवित्रतम माटी के कर्तव्यपरायण नागरिक होने के नाते आपकों इनके कथनों का अर्थ और निहितार्थ ज़रूर तलाशने चाहिए क्योंकि इन मुस्लिम नेताओं का कथन आपके पुरखों के इस पवित्र माटी पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। अतः आपका ज़मीर इसके निहितार्थ तलाशने के लिए उत्तरदायी है। चलिये, हम आपकी मदद कर देते हैं।

पहली बात, मैं इस लेख में बार-बार इनको सिर्फ मुस्लिम नेता कहकर इसलिए संबोधित कर रहा हूँ क्योंकि इनके रुधिर में अगर भारत का एक कतरा भी होता तो ऐसी बातें बोलना तो दूर ऐसा सोच कर ही वो शर्मिंदा हो जाते। अतः उनमें न तो भारत के संस्कार है और ना ही भारत के प्रति कोई सम्मान। अतः ये बयान सिर्फ एक कट्टरपंथी सोच वाला ही कोई दे सकता है जिसे तालिबान के आतंकी स्वरूप से कोई घृणा नहीं।

निहितार्थ:

खैर, प्रथम बयान में महबूबा मुफ़्ती जी कहना चाहती है कि तालिबान हमारे शरीयत और मदीना मॉडल पर शासन करे और विश्व की मान्यता तो मिल ही जाएगी। पाठकगण, उनके इस बयान के तीन ही निहितार्थ है।  पहला, वो तालिबान के सत्ता को विधि और न्याय संगत मानती हैं। तालिबान को विश्व से मान्यता लेने के मार्ग भी बताती है। दूसरा, शरिया और 1400 साल के रूढ़िवादी इस्लामिक शासन के मदीने माडल को अपना बताती है। तीसरा, इसी को शासन आधार बनाने का आग्रह भी करती है। फारुख अब्दुल्लाह के बयान के भी यहीं तीन निहितार्थ है।

अब ज़रा आप अपने दिमाग पर बल डाल कर सोचिए। जो नेता शरीयत और बर्बर मदीने माडल को शासन का आधार बता दे उसके मन में भारतीय संविधान और संवैधानिक लोकतन्त्र की क्या हैसियत होगी। पाठक खुद अनुमान लगा सकते हैं। इसके अलावा, उन्होंने शरीयत मॉडल को अपना शासन मॉडल बताया। तालिबान से हमदर्दी रखते हुए उसे वैश्विक मान्यता पाने का उपाय भी बताया। इससे पाठकगण इन दोनों नेताओं का भारत और मिट्टी के प्रति जुड़ाव को भी समझ सकते हैं।

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निष्कर्ष:

यह कश्मीरियत नहीं है। यह इंसानियत भी नहीं है। यह बर्बरीयत और जाहिलीयत है। यह कथन पूर्णतः भारतीय कूटनीति के विपक्ष में है। आखिर, इन नेताओं और तालिबान के तानाशाह आतंकवादियों के बीच हमदर्दी का आधार क्या है? सिर्फ और सिर्फ उम्माह। कट्टर धर्मांधता ने इनके मन से राष्ट्रवाद, लोकतन्त्र, संविधान, स्वतन्त्रता और समानता के सारे सिद्धांतों को निकाल कर फेंक दिया है। अफगानिस्तान की सत्ता पर एक कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवादी सत्तासीन है सिर्फ यही चीज़ उन्हें आनंदित कर देती है। बाकी जो लोग भारत का इन कश्मीरी नेताओं के प्रति बेरुखी का हवाला देंगे उन्हें कम से कम इन दो तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए। हिन्दू राजा हरी सिंह को हटाकर अब्दुल्लाह के पिता को भारत ने कश्मीर की कमान सौंपी थी। महबूबा मुफ़्ती के पिता को भारत ने गृह मंत्री जैसा सम्मानित पद सौंपा था। अनुच्छेद 370 हटाने पर इनके राष्ट्रविरोधी कथन पर भी भारत ने इन्हें जेल नहीं बल्कि घर में नज़रबंद रखा था। एक बार फिर से सरकार ने वही काम किया है। तो ऐसा क्या है जो इतने शिक्षित, आधुनिक और सम्मानित नेता इतने बर्बर आतंकवादी संगठन से हमदर्दी रखते है। इसका कारण सिर्फ इस्लामी कट्टरपंथ लगता है।

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