यह तय हो चुका है कि अफ़ग़ानिस्तान पूर्णतः तालिबान के कब्जे में जा चुका है। पंजशीर के अतिरिक्त कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जो तालिबानी आधिपत्य का विरोध कर सके। ऐसे में भारत सरकार ने तालिबान से पहली बार आधिकारिक रूप से कोई बातचीत की है।
देखा जाए तो अमेरिका ने 20 वर्षों तक अफ़ग़ानिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करने और मानवाधिकारों को स्थापित करने के लिए अथक परिश्रम किया। लेकिन सत्य यह है कि किसी देश में लोकतंत्र बंदूकों के जोर पर सुरक्षित नहीं रहता बल्कि आम जनमानस लोकतंत्र की ढाल होता है। तालिबान को 20 वर्षों से अनवरत मिला समर्थन यह बताता है कि तालिबानी विचार का प्रभाव अफ़ग़ानिस्तान के एक बड़े जनमानस पर है।
अब जबकि अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना के प्रयास असफल हो चुके हैं तो ऐसे में भारत को भी अपने हितों की सुरक्षा के लिए तालिबान से बातचीत शुरू करनी ही पड़ती। हम इसे पसंद करें या न करें, लेकिन इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकते कि आज तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति है। भारत के पास दो रास्ते हैं, आदर्श के लिए तालिबान का विरोध करे या अपने हितों के लिए उससे बात करे।
हाल ही में अमेरिकी राजदूत निकी हेली ने चेतावनी दी है कि चीन अफ़ग़ानिस्तान के बगराम एयरबेस को तालिबान की मदद से अपने अधीन करना चाहता है। तालिबान के संबंध चीन से पहले ही बहुत अच्छे हैं ऐसे में भारत अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की चिंता करते हुए अपने हितों की बलि नहीं दे सकता। यही कारण है कि दोहा में तालिबान कि ओर से आए बातचीत के निमंत्रण को भारत ने अस्वीकार नहीं किया। हालांकि अब भी भारत ने अपनी ओर से केवल दो मांग रखी है कि तालिबान अफगानी हिंदुओं और सिक्खों को अफ़ग़ानिस्तान से सुरक्षित निकलने दे और अपनी धरती का उपयोग वैश्विक इस्लामी आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए नहीं करे।
भारत की समस्या यह है कि एक ओर तो चीन अफ़ग़ानिस्तान में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है, वहीं दूसरी ओर हिन्द महासागर में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। हाल में खबर आई है कि चीन ने श्रीलंका में इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट हथियाने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। श्रीलंका की आर्थिक दुर्बलता चीन के लिए सुअवसर है। ऐसे में यह चिंता भी है कि हम कहीं अपना सारा ध्यान अफ़ग़ानिस्तान पर ही केंद्रित रखेंगे और तालिबान से लड़ने में ऊर्जा व्यर्थ करेंगे तो हिन्द महासागर में चीनी विस्तार को नियंत्रित नहीं कर सकेंगे।
भारत की अफ़ग़ानिस्तान में भावी रणनीति यही होनी चाहिए कि तालिबान और पंजशीर फोर्स, जिसमें मुख्यतःताजिक लोग शामिल हैं, के बीच कोई समझौता करवाए। पंजशीर को अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में हिस्सेदारी दिलवाए का प्रयास करे। वैसे भी ताजिक लोगों के साथ भारत के रिश्ते बहुत मजबूत रहे हैं। ऐसा कहा जाता है कि अहमद शाह मसूद ने लम्बे समय तक R&AW के साथ काम किया है। वर्तमान समय में उनका बेटा पंजशीर फोर्स का नेता है। साथ ही यह भी माना जाता है कि अमरुल्लाह सालेह RAW के साथ काम कर चुके हैं, हालांकि इसकी कोई आधिकारिक घोषणा कभी नहीं हुई।
रूस भी यह नहीं चाहेगा कि पंजशीर सेना की पराजय हो क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान में एकछत्र राज हो जाएगा। यदि भविष्य में तालिबान वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद को बढ़ावा देने लगा तो इससे रूस को भी समस्या हो सकती है। रूस भी चेचेन्या के क्षेत्र में इस्लामिक अलगाववादियों से संघर्षरत रहा है। रूस नहीं चाहेगा कि तालिबान या अफ़ग़ानिस्तान में कार्यरत कोई भी इस्लामी आतंकी संगठन, चेचेन्या के आतंकियों से संपर्क स्थापित करे।
इसलिए भारत रूस का सहयोग लेकर अफ़ग़ानिस्तान में एक शक्ति संतुलन बनाने का प्रयास कर सकता है। वैसे भी पंजशीर जिसमें मुख्यतः ताजिक लोगों का आधिपत्य है, उनको तजाकिस्तान से समर्थन प्राप्त है और तजाकिस्तान रूस का सहयोगी देश है। भारत, रूस और तजाकिस्तान तालिबान के विस्तार को रोक सकते हैं।
यदि अफ़ग़ानिस्तान में एक शक्ति संतुलन बन जाता है तो भारत के हितों की रक्षा होगी और तब भारत हिन्द महासागर में चीन कर बढ़ते प्रभाव को रोकने पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकता है। जब तक यह शक्ति संतुलन नहीं स्थापित होता, भारत को तालिबान से औपचारिक एवं अनौपचारिक बातचीत करते रहना चाहिए। यह शत-प्रतिशत सत्य है कि भारतीय सेना तालिबान के किसी भी प्रहार को रोक सकती है, लेकिन हमें समझना होगा कि हमारी प्राथमिकता अफ़ग़ानिस्तान की मुक्ति नहीं, अपने हितों की रक्षा है।