कहते है- “चलचित्र अर्थात सिनेमा समाज की दर्पण है।” सिनेमा सामाजिक सरोकार और संरचनाओं को बड़े ही सार्थक रूप से प्रतिबिम्बित करता है। भारतीय समाज के सापेक्ष में इसकी प्रासंगिकता अत्यंत प्रभावी है। पर्दे के नायकों को देवतुल्य सम सम्मान देनेवाला भारतीय समाज ‘सनीमा’ को लेकर अत्यंत संवेदनशील है। जन से राष्ट्र है और हम राष्ट्र की इकाई। अर्थात, भारतीय सिनेमा उद्योग बॉलीवुड पर शत्रु-राष्ट्र का नियंत्रण ना सिर्फ सामाजिक अपितु वैयक्तिक रूप से भी जन-मन को वैचारिक पराधीनता के पथ पर उन्मुख करेगा। चीन की साम्यवादी सरकार इसके निमित्त सतत प्रयासरत है।
दरअसल, 3 सितंबर को Law and Society Alliance द्वारा “भारत में चीनी पद चिन्हों और प्रभाव का मानचित्रण” नामक शीर्षक से प्रकाशित 76 पृष्ठ के शोध में इस विषय पर तार्किक तथा तथ्यपूर्ण अन्वेषण प्रस्तुत किया गया है। यह शोध भारतीय समाज को प्रभावित करनेवाले क्षेत्रों में बढ़ते हुए चीनी हस्तक्षेप के बारे में है जिसमें सिनेमा उद्योग प्रमुख है।
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रिपोर्ट में चीनी खुफिया सेवाओं और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सरकार द्वारा मनोरंजन उद्योग से लेकर शैक्षणिक संस्थानों तक चीन के बढ़ते वर्चस्व का वृहद वृतांत वर्णित है। पिछले कुछ वर्षों में, चीन ने बार-बार भारतीय मनोरंजन उद्योग में घुसपैठ करने और चलचित्रों के सह-निर्माण तंत्र के माध्यम से बॉलीवुड को प्रभावित करने की कोशिश की है।
चीन द्वारा बॉलीवुड को प्रभावित करने के प्रयास का सबसे स्पष्ट प्रमाण 2019 में बीजिंग अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में चीन द्वारा द्विपक्षीय फिल्म सह-निर्माण संवाद की मेजबानी करना था। चीन के अनवरत छल ने शाहरुख और कबीर खान जैसे प्रमुख बॉलीवुड कलाकारों तक को अपने आवरण में ले लिया है। शोध के उद्धरण अनुसार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय फिल्म उद्योग में एक सशक्त चीनी लॉबी भी निर्मित की है।
रिपोर्ट के अनुसार जनवरी 2018 में, भारत के दूत गौतम बंबावाले ने चीन के शीर्ष मीडिया नियामक से मुलाकात की और फिल्मों और मीडिया में सहयोग पर चर्चा की थी। इस चर्चा के अनुसार चाइना फिल्म ग्रुप कॉरपोरेशन (सीएफजीसी), शंघाई फिल्म ग्रुप कॉरपोरेशन (एसएफजी) और फुडन यूनिवर्सिटी प्रेस तथा भारत का इरोज इंटरनेशनल दोनों देशों में सभी प्लेटफॉर्म पर चीन-भारतीय फिल्मों का प्रचार, सह-निर्माण और वितरण करेंगे। यही नहीं 2013 में, भारत और चीन ने फिल्म और प्रसारण क्षेत्र में द्विपक्षीय सहयोग को मजबूत करने का फैसला किया। नवंबर 2017 में गोवा में आयोजित भारत अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में चीन मुख्य अतिथि देश था। वर्ष 2014 के एक समझौते में, भारत और चीन ने चीन में भारतीय फिल्मों के लिए बाजार में सुधार करने की योजना भी बनाई थी।
अब कुछ उदाहरण देखते हैं कि कैसे चीन ने बॉलीवुड पर अपना प्रभाव जमाया है।
उदाहरनार्थ इम्तियाज़ अली द्वारा निर्देशित “रॉकस्टार” के निर्माताओं द्वारा ‘’साड्डा हक़’’ गाने में “फ्री तिब्बत” लिखा हुआ झंडे को हटाना चीनी हस्तक्षेप को प्रतिबिम्बित करता है। पाकिस्तान की पराजय पर नित्य-नियत चलचित्र निर्मित करनेवाले हमारे निर्माताओं ने आज तक भारत-चीन शत्रुता का कोई सार्थक चित्रण नहीं किया है। किसी बड़े फिल्मी कलाकार ने साम्यवादी सरकार के नृशंसता और शत्रुता के चित्रण के प्रति प्रतिबद्धता भी नहीं दर्शायी। ऊपर से चीन की साम्यवादी सरकार ने इस्लामिक कट्टरपंथ, मुग़ल महिमामंडन और राष्ट्रीय हीनता का मार्ग प्रशस्त किया है। कबीर खान की “The Empire’’ साम्यवाद समर्थित इसी एतिहासिक विकृतिकरण का उत्कृष्ट उदाहरण है।
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इसी तरह विशाल भारद्वाज निर्मित ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ नामक फिल्म में भी माओ त्से-तुंग को महिमामंडित करते हुए साम्यवाद के आदर्शों का मनगढ़ंत प्रस्तुतीकरण किया गया है। इसमें दिखाया गया है कि ग्रामीणों को उनकी लड़ाई में माओ द्वारा समर्थन और सलाह दी जाती है। नियमित रूप से ग्रामीणों को कपड़े पर उनके द्वारा लिखे संदेश भेजे जाते हैं। बाद में यह पता चलता है कि माओ कोई और नहीं बल्कि ‘मटरू’ है जो हैरी (पंकज कपूर) के सहयोगी के रूप में अपनी पहचान छिपाते हुए ग्रामीणों को सलाह दे रहा है। जबकि चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान माओ के नृशंस नरसंहार पूरी दुनिया परिचित है। यह ऐतिहासिक मिथ्याकरण, विकृतिकरण नहीं तो क्या है?
बीजिंग का प्रभाव सूक्ष्म लेकिन व्यवस्थित रहा है। अमेरिका के बाद चीन दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा फिल्म बाजार है। वर्तमान में इसमें 41,000 सिनेमा स्क्रीन हैं जो भारत में लगभग दोगुनी संख्या में हैं। आमिर खान की दंगल ने चीनी बॉक्स ऑफिस पर 1,300 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की थी। इससे अन्य फ़िल्मकार कमाई को देख कर स्वयं भी फिल्म बाजार का फायदा उठाते दिखेंगे, इसलिए आप किसी बड़े कलाकार को निकट भविष्य में चीन विरोधी फिल्म बनाते शायद ही देखेंगे।
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परंतु, संप्रभुता सर्वोपरि है। प्रकृति प्रदत्त भारत की सुदृढ़ भौगोलिक परिधि इसे अजेय और अभेद्य बनाती है। अतः, भारत के संप्रभुता और राष्ट्रीयता पर सर्वाधिक संकट वैचारिक और सांस्कृतिक स्तर पर है। कला से विचार, विचार से जन तथा जन से राष्ट्र बदलता है। अगर कला और संस्कृति का एतिहासिक विकृतिकरण कर भारत के ‘भाग्य-विधताओं’ और युवाओं के मन-मस्तिष्क पर अंकित कर दिया जाए तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे। अगर चीनी राजनयिक के शब्दों में उद्धरित करें तो –“सीमा के पार एक भी सैनिक भेजे बिना भारत नें सालों तक चीन पर सांस्कृतिक रूप से शासन किया।‘’ अब चीन इसी सिद्धान्त के अनुरूप युद्ध स्तर पर कार्यरत है। सरकार अपने स्तर पर इसे रोकने हेतु प्रयासरत है। यह प्रयास प्रशंसनीय और सराहनीय भी है। परंतु, कर्तव्यपरायण नागरिकों के भी उत्तरदायित्व होते है। ऐसे चलचित्रों, नायकों और इनके आयोजनों का पूर्ण बहिष्कार हम राष्ट्र के प्रति अपने नैतिक उत्तरदायित्व का निर्वहन कर सकते है। अतः, नायक और निर्देशक सही चुने। वैसे भी आपका मनोरंजन मिट्टी और संस्कृति से बड़ा तो बिलकुल नहीं हो सकता।