प्रथम विश्व युद्ध की रणभेरी चारों ओर गूंज उठी। यूरोप में एक राजकुमार की हत्या देखते ही देखते एक वैश्विक संग्राम में परिवर्तित हो गया, जहां सभी को सत्ता की लालसा को तृप्त करना था। इस युद्ध से न मानवता को लाभ हुआ, और न ही विजयी हुए देशों को, परंतु हानि सभी की हुई। सर्वाधिक हानि उस देश की हुई, जिसने पराजित पक्ष जर्मनी को बढ़ावा दिया, ताकि इस्लामिक साम्राज्य के डूबते सूर्य यानि ऑटोमन साम्राज्य को बचाया जा सके। परंतु ऐसा नहीं हो सका, और तुर्की की पराजय ने 3 वर्षों बाद इतिहास के एक अनकहे नरसंहार की नींव रखी, मोपलाह नरसंहार की।
आज के इस अंक में आपको अवगत कराऊँगा मोपला के नरसंहार के उन अपरिचित, अनसुने तथ्यों, जो वामपंथी इतिहासकार कभी नहीं चाहते कि देश इनके बारे में अवगत हो। पिछले अंक में हमने आपको इस विषय से परिचित कराया था कि कैसे मोपला नरसंहार से पूर्व छोटे स्तर की 50 से अधिक हिंसक गतिविधियां होती रहती थी, जिससे मोपला जैसी त्रासदी की पृष्ठभूमि रची जा सकी। इस संस्करण में आप इस तथ्य से परिचित होंगे कि कैसे प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय के साथ ही तुर्की की इस्लामिक खिलाफत का भी अंत हुआ, और कैसे ऑटोमन साम्राज्य के विध्वंस मोपला नरसंहार के प्रमुख कारकों में से एक सिद्ध हुआ।
ऑटोमन सल्तनत का अस्त होता सूर्य
जैसा कि हम अवगत हुए हैं, 19वीं सदी का अंत होते-होते मालाबार क्षेत्र राजनीतिक अस्थिरता के विकट परिस्थिति का सामना कर रहा था। परंतु 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में यही स्थिति सम्पूर्ण संसार की थी। एक ओर यूरोप में औद्योगिक क्रांति के कारण वैभव और विलासिता अपने चरमोत्कर्ष पर थी, तो वहीं यूरोप से कुछ ही दूरी पर स्थित मध्य एशिया में इस्लामिक सल्तनत का सूर्य अस्त हो रहा था। ये वो समय था, जब सऊदी अरब इस्लामिक जगत का निर्विरोध सम्राट नहीं था, और संयुक्त अरब अमीरात का लगभग कोई अस्तित्व ही नहीं था।
तब तुर्की का ऑटोमन साम्राज्य इस्लामिक जगत का सर्वमान्य नेता था, और उसका बादशाह इस्लामिक जगत का खलीफा यानि नेता था। परंतु ऑटोमन साम्राज्य पहले जितना सर्वशक्तिशाली नहीं था। वह अपनी प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करना चाहता था, और इसके लिए प्रथम विश्व युद्ध उनके लिए किसी सुनहरे अवसर से कम नहीं था।
जर्मनी और तुर्की – दो असंभावित सहयोगी
यही वो समय था, जब यूरोप में जर्मनी का प्रादुर्भाव शीघ्रता से हो रहा था। औद्योगिक क्रांति का यदि किसी ने सर्वाधिक लाभ उठाया था, तो वो था जर्मनी। औद्योगिक, आर्थिक और वित्तीय रूप से वह शीघ्र ही सबसे तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सम्मिलित होने लगा, और जल्द ही वह यूके और अमेरिका जैसे समृद्ध देशों को आँखें दिखाने लगा। आज जो स्थिति चीन की है, एक समय यूरोप में यही स्थिति जर्मनी की भी थी।
अब जर्मनी के लिए रणनीतिक रूप से तुर्की काफी महत्वपूर्ण थी, और तुर्की के लिए जर्मनी का समर्थन। जर्मनी के समर्थन से तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य को बल मिलता, और तुर्की एवं जर्मनी संयुक्त रूप से अपने शत्रु रूस को पराजित कर देते। परंतु, विश्व युद्ध के परिणाम ने पूरा पासा ही पलट दिया। जर्मनी भी पराजित हुआ, और तुर्की भी।
सेवरेस की संधि
परंतु कथा तो यहाँ से आरंभ होती है। 1920 में फ्रांस के सेवरेस शहर में हस्ताक्षरित एक समझौते के अनुसार पराजित तुर्की को अपने अधीन अधिकतर क्षेत्रफल उनके मूल स्वामी, यानि उनके वास्तविक निवासियों को सौंपनी पड़ी। इसी से ऑटोमन साम्राज्य का वास्तविक पतन प्रारंभ हुआ था। परंतु इसका भारत से क्या नाता था, और मालाबर के मोपला नरसंहार में तुर्की के खिलाफत साम्राज्य की क्या भूमिका थी?
खलीफा के अपमान से क्रोधित भारतीय मुसलमान
उस समय भी विश्व के कई मुसलमानों के लिए तुर्की के खलीफा सर्वमान्य नेता माने जाते थे, और उनका प्रभुत्व का लोहा विश्व के अनेक मुस्लिम मानते थे। ऐसे में खलीफा का अपमान अर्थात उनका अपमान, और यही भावना भारत के कई मुसलमानों में भी उमड़ रही थी। सेवरेस का समझौता केवल तुर्की के लिए अपमान का विषय नहीं था, अपितु भारतीय मुस्लिमों के लिए भी अपमान का विषय था।
इस समय तक भारतीय मुसलमानों का भारत के स्वाधीनता आंदोलन से कोई लेना देना नहीं था। 1857 की क्रांति में मुट्ठी भर मुसलमानों ने अवश्य भाग ली थी, परंतु उनमें भी अधिकतर मराठा साम्राज्य के प्रति निष्ठावान थे। किसी भी भारतीय मुस्लिम ने शुद्ध मन से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए 1857 की क्रांति में भाग नहीं लिया था, और 1857 की क्रांति के पश्चात ब्रिटिश साम्राज्य के लिए उनकी निष्ठा बढ़ती ही गई। पहले सर सैयद अहमद खान के रूप में उन्होंने सिद्ध किया कि मुस्लिम समुदाय अँग्रेज़ों के प्रति सदैव निष्ठावान रहेगी, और तद्पश्चात अँग्रेज़ों की नीतियों के अनुसार 1906 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की रचना हुई, जिसने आगे चलकर भारत के विभाजन में एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई।
परंतु प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की की पराजय और ब्रिटेन जैसे देशों के हाथों तुर्की के खलीफा के अपमान ने उन्हें पुनर्विचार पर विवश किया। यहीं से खिलाफत आंदोलन की नींव पड़ी, जिसका नेतृत्व अली बंधुओं ने किया – मोहम्मद अली और शौकत अली, और साथ दिया मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना मुहीयुद्दीन अहमद अथवा मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने। उद्देश्य स्पष्ट था – तुर्की के अपदस्थ खलीफा के साथ हुए ‘अन्याय’ के विरोध में भारत की ओर से एक अभियान आरंभ करना, और इसी खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस पार्टी ने अपने हेतु एक अवसर भी खोजा।
कांग्रेस और उसकी धर्मनिरपेक्षता
जिस समय खिलाफत आंदोलन प्रारंभ हुआ, संयोगवश उसी समय भारत में अँग्रेज़ों के विरुद्ध असहयोग आंदोलन भी प्रारंभ हुआ। 1920 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में प्रख्यात नेता मोहनदास करमचंद गांधी ने ‘सम्पूर्ण असहयोग’ का नारा दिया, जिसके अंतर्गत ब्रिटिश सरकार को देशवासी किसी भी स्तर पर किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं देंगे, और अँग्रेज़ों से जुड़े हर प्रकार के वस्तुओं का सम्पूर्ण बहिष्कार भी करेंगे। इसी के अंतर्गत वे अँग्रेज़ों को ये भी सिद्ध करना चाहते थे कि उनके विरुद्ध हर समुदाय के व्यक्ति एक हो सकते हैं, और इसी उद्देश्य से मोहनदास गांधी, जो आज महात्मा गांधी के नाम से भी चर्चित हैं, ने खिलाफत आंदोलन के भागीदारों को स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने का आह्वान किया।
इस आह्वान के पीछे गांधीजी के दो उद्देश्य थे– वे अँग्रेज़ों के समक्ष एक सशक्त भारत की छवि पेश करना चाहते थे, और वे अपने आप को एक ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे, जो सभी को साथ लेकर चल सके। परंतु, वे एक महत्वपूर्ण बात ही भूल गए – खिलाफत आंदोलन का मूल उद्देश्य।
खिलाफत का प्रचार करते गांधी
खिलाफत आंदोलन का मूल उद्देश्य था – ब्रिटिश साम्राज्य एवं यूरोप पर ऑटोमन साम्राज्य को पुनर्स्थापित करने के लिए दबाव बनाना और तुर्की के खलीफा को उनका स्थान पुनः दिलाना। क्या इसका भारत या भारत की संस्कृति से कोई नाता था? क्या इससे भारत को कोई लाभ मिलता? ऐसा कुछ भी न होने के बाद भी मोहनदास गांधी ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए खिलाफत आंदोलन को भरपूर समर्थन दिया, और खिलाफत की मांगों को कांग्रेस के मंच से बढ़ावा भी दिया। पंथनिरपेक्षता के नाम पर वे भारत के सांस्कृतिक विनाश की ही नींव रख रहे थे।
जिस प्रकार से निरंतर तुष्टीकरण ने डायरेक्ट एक्शन डे जैसे वीभत्स त्रासदी का सृजन किया, ठीक उसी प्रकार से मोहनदास गांधी की अदूरदर्शिता और कॉंग्रेस की तुष्टीकरण की नीति ने मोपला के नरसंहार की पृष्ठभूमि रची। यदि खिलाफत आन्दोलन को कांग्रेस ने अपने मंच पर इतना स्पष्ट बढ़ावा न दिया होता, तो ये भी संभव था कि मोपला के मुस्लिम सांप्रदायिक हिंसा अवश्य करते, परंतु वह इतना वीभत्स न होता, और न ही इतना विशाल होता, जितना 1921 के मोपला नरसंहार थे।
खिलाफत आंदोलन पर कांग्रेस की अदूरदर्शिता ने निस्संदेह मोपला की नींव रखी, परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि इससे उन्होंने कोई सीख नहीं ली। अगले अंक में हम इस दंगे के नृशंस वृतांत को और स्पष्ट रूप में समझेंगे। हम यह समझेंगे की महिलाओं को बेरहमी से पीटना,जीवित व्यक्तियों की खाल उतारना,पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का सामूहिक नरसंहार,पूरे परिवारों को जिंदा जलाना,जबरन हजारों हिंदुओं का धर्मांतरण और जिन्होंने इस्लाम अपनाने से इनकार किया, उनकी हत्या करना,अधमरे लोगों को कुओं में फेंकना और पीड़ितों को मरने और कष्टों से मुक्त होने के लिए संघर्ष करने हेतु छोड़ देना का कार्य कैसे किया गया? हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए अशांत क्षेत्रों में स्थित कई मंदिरों को कैसे अपवित्र और निर्ममता पूर्वक नष्ट कर दिया गया? तब तक के लिए साधुवाद।
भाग 1 – मोपला नरसंहार: कैसे टीपू सुल्तान और उसके पिता हैदर अली ने मोपला नरसंहार के बीज बोए थे
भाग 2- मोपला नरसंहार: टीपू सुल्तान के बाद मोपला मुसलमानों और हिंदुओं के बीच विभाजन का कारण
भाग 3- मोपला नरसंहार: 1921 कोई अकेली घटना नहीं थी, 1836 से 1921 के बीच 50 से अधिक दंगे हुए थे