पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए राज्य की राजनीति स्मार्टफोन्स के गेम टेंपल रन जैसी हो गई है, जहां वो अपने रास्ते की एक मुसीबत को किसी तरह पार करती हैं; तो तुरंत ही एक दूसरी मुश्किल उनका इंतजार करने लगती है। ममता की पार्टी टीएमसी विधानसभा चुनाव बीजेपी की चुनौतियां के बावजूद जीती, तो ममता खुद नंदीग्राम से हार गईं। इसके बाद ममता जल्द-से-जल्द उप-चुनाव कराने को आतुर थीं तो उनके सामने नई मुश्किल उनकी ही पारंपरिक सीट भवानीपुर से खड़ी हो सकती है, क्योंकि ममता का 2016 का यहां का इतिहास कुछ खास नहीं रहा है। वहीं ये भी माना जा रहा है कि भाजपा ममता की प्रतिष्ठा को तगड़ी चोट देने के लिए पुनः उन्हें चुनौती दे सकती है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या ममता की स्थिति उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह या झारखंड के पूर्व सीएम शिबू सोरेन की तरह हो सकती है, जो कि मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव हारे थे।
ममता बनर्जी के लिए आज की स्थिति में राष्ट्रीय राजनीति में जाने से कहीं अधिक आवश्यक ये है कि वो विधानसभा में अपनी सीट पक्की कर सकें, क्योंकि नंदीग्राम में सुवेंदु अधिकारी से चुनाव हारने के बाद ममता पर सीएम पद से इस्तीफा देने की तलवार लटक रही है। ऐसे में कोरोनावायरस के कारण लंबे वक्त से उपचुनाव के मुद्दे पर संशय बना हुआ था, जिसके चलते ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का प्रतिनिधिमंडल आए दिन चुनाव आयोग के दरवाजे पर जाकर उपचुनाव कराने की गुहार लगा रहा था, ये उनकी हताशा को ही सुनिश्चित कर रहा था। ऐसे में ममता के लिए अब चुनाव आयोग ने एक राहत भरी खबर सुनाते हुए राज्य की तीन विधानसभा चुनाव के लिए उपचुनाव का ऐलान कर दिया है।
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निर्वाचन आयोग की घोषणा के अनुसार, बंगाल की तीन विधानसभा सीटों पर 30 सितंबर को उप-चुनाव के लिए मतदान होगा। ये खबर ममता के लिए राहत भरी इसलिए है, क्योंकि इन तीन में से एक ममता की पारंपरिक सीट भवानीपुर भी है। वहीं, मतगणना की तारीख 3 अक्टूबर तय की गई है। ममता की पार्टी के नेताओं को अब सारी स्थिति ममता के लिहाज से सकारात्मक लग रही है, किन्तु ऐसा नहीं है। मुख्यमंत्री के लिए भवानीपुर से विधानसभा उपचुनाव जीतना एक टेढ़ी खीर माना जा रहा है।
टीएफआई आपको पहले ही बता चुका है कि भवानीपुर सीट बहुसंख्यक आबादी वाला क्षेत्र है, जहां बड़ी संख्या में गुजराती लोग भी रहते हैं। गैर बंगालियों में इन गुजरातियों की संख्या करीब 70 प्रतिशत से भी ज्यादा है। दो बार के चुनावों में ही ममता की लोकप्रियता ढलान पर आ गई थी। 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता को मिला वोट प्रतिशत जो कि 77% के स्तर पर था, वो 2016 के विधानसभा चुनाव में 48 प्रतिशत पर आकर लुढ़क गया था। ममता को इस सीट पर गैर बंगालियों के कारण नुकसान हुआ, क्योंकि वो बंगाली बनाम बाहरी की राजनीति करती हैं। विश्लेषकों ने तो सुवेंदु के सामने ममता के खड़े होने के फैसले को लेकर ये भी कहा था कि ममता अपनी भवानीपुर सीट पर जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हैं, इसीलिए उन्होंने नंदीग्राम की सीट चुनी थी।
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इसके अलावा विधानसभा चुनाव के बाद जिस तरह से राज्य में हिंसा हुई है, वो भी ममता बनर्जी के लिए एक मुसीबत का सबब बन सकती है, क्योंकि भवानीपुर की सीट पर ही बीजेपी ममता के हिन्दू विरोधी होने का एवं मुस्लिमों के तुष्टीकरण का मुद्दा उठा सकती है। भाजपा को इसका फायदा भी मिल सकता है क्योंकि इस सीट पर बहुसंख्यकों की आबादी अधिक है। दूसरी ओर ममता की इन्हीं नीतियों के कारण कोलकात्ता हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ममता को लताड़ लगा चुका है
भारतीय राजनीति के इतिहास में अभी तक ऐसा दो बार ही हुआ है कि पद पर बैठे मुख्यमंत्री उप-चुनाव हारे हों, पहली बार उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम त्रिभुवन नारायण सिंह वर्ष 1970 में विधानसभा उपचुनाव हारे थे। इसके बाद झारखंड के सीएम शिबू सोरेन भी उप-चुनाव में ही परास्त हुए थे। ऐसे में यदि ममता को भाजपा से भवानीपुर सीट पर कठिन चुनौती मिलती है, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी और सीएम रहते उप-चुनाव हारने वाले नेताओं की सूची में तीसरा नाम ममता बनर्जी का भी जुड़ जाए।