सरकारी स्कूल का निजीकरण किया जाए और उसे पीपीपी मॉडल पर चलाया जाए
जब शासन के बाद अंग्रेज गए तब भारत की साक्षारता दर 18 प्रतिशत के आस-पास थी। जैसे-तैसे करके आज भी देश 70 प्रतिशत का आंकड़ा छु पाया है और वह भी तब जब नाम लिखने और हस्ताक्षर करने को पढ़ाई का आधार माना जाता है। भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट निकलते है फिर भी हमारे यहां कुछ अनोखा ज्ञान नहीं मिल पाता है। कारण है बुनियादी शिक्षा और अब जरूरत है कि सरकारी स्कूल का निजीकरण किया जाए और उसे पीपीपी मॉडल पर चलाया जाए। यह आवश्यक है कि सरकारी स्कूल और निजी क्षेत्र के स्कूलों के बीच public-private partnership बनाने के लिए नीति आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए कदम उठाए जाए।
भारत एक ऐसा देश है जहां जनता अपना पेट काट कर भी अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती है। आज हमारे देश में पढ़ाई के स्तर को उच्च स्तर पर लेजाने में सबसे बड़ा अवरोध सरकारी स्कूल है। हमारे यहां 1 से 12 तक के स्कूलों को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। प्राथमिक विद्यालय, माध्यमिक विद्यालय और उच्च माध्यमिक विद्यालय। कई जगह सिर्फ प्राथमिक विद्यालय और माध्यमिक विद्यालय के नाम पर पढ़ाया जाता है। इन स्कूलों को चलाने के लिए सन 2019-20 में 6.43 लाख करोड़ रुपए खर्च किये गए थे, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा 56, 537 करोड़ रुपए दिए गए थे।
अब एक तरफ आंकड़ो को रख दीजिए और दूसरी ओर जर्जर हालत में पड़े हुए विद्यालयों को याद करिए। गंध आती, बिना रोशनी और पुराने खिड़कियों से बना हुआ ईंटे का भवन ही आपके दिमाग में आएगा। छात्रों को बैठने के लिए बेंच और कुर्सी नहीं है, दरी बिछाकर पढ़ाया जाता है और तो और, इन सबके बावजूद अगर शिक्षक बढ़िया हो तब भी लोग स्कूल भेजे लेकिन यहां तो स्थिति और बुरी तरह खराब है। शिक्षक पढ़ाते नहीं, स्कूल नहीं जाते, कई जगहों पर तो उनके नाम पर कोई और पढ़ा रहा होता है। मिड डे मील के नाम पर आये दिन कुछ न कुछ बुरी खबर आती रहती है। गदहिया स्कूल, खिचड़ी स्कूल से बदनाम सरकारी स्कूलों में बहुत कुछ बदलने की आवश्यकता है। यही कारण है कि हम आप में से कोई मजबूरी में ही अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है। प्राइवेट स्कूलों में हर महीने का 2000 रुपये देकर भी लोग अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए मजबूर है। परंतु उससे अधिक आवश्यक हो गया है कि सरकारी स्कूल का निजीकरण किया जाए।
अब आप यह कह सकते हैं कि प्राइवेट स्कूल में फीस ज्यादा ली जाती है इसलिए ऐसी व्यवस्था है। हालांकि तथ्य कुछ और ही है। नीति आयोग के अनुसार सरकारी स्कूल में हर एक बच्चे पर 80,000 रुपया खर्च किया जाता है। 80,000 रुपया! अगर प्राइवेट में 3500 भी हर महीने का फीस ही तब भी साल का 42,000 रुपये ही खर्च किया जाता है। सरकारी व्यय के सामने फिर भी यह आधा है। दिक्कत है रवैये में, सरकारी स्कूल में नौकरी पाएं शिक्षक की जवाबदेही तय ही नहीं होती है। अगर CBSE मान्यता प्राप्त स्कूल में बोर्ड्स के रिजल्ट खराब आते है तो टीचर को घसीटा जाता है। प्राइवेट स्कूलों की सफलता ही उनके रिजल्ट पर निर्भर होती है। सरकारी शिक्षक इस चीज से मुक्त होता है। हेडमास्टर बनाये गए व्यक्ति का संपर्क ऊपर हो जाता है तो वजीफा मिले न मिले, खाना मिले न मिले, उसकी जवाबदेही तय नहीं होती है।
बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2010 से 2014 के बीच 1.13 करोड़ छात्र सरकारी स्कूल छोड़ दिए हैं। वहीं दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूल में 1.85 करोड़ बच्चों ने एडमिशन लिया। 2014-15 में 3 लाख 70 हजार सरकारी स्कूल ऐसे थे जहां 50 से कम बच्चे पढ़ते है। ये स्कूल भारत के कुल सरकारी स्कूल का 36% है।
2010-11 और 2015-16 के बीच, निजी स्कूलों की संख्या 35% बढ़ी जबकि सरकारी स्कूल की संख्या 1% बढ़ी। इसके अलावा, एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) पर 1.16 लाख करोड़ रुपये (17.7 बिलियन डॉलर) खर्च किए जाने के बावजूद इस राष्ट्रीय कार्यक्रम में 2009 और 2014 के बीच सीखने की गुणवत्ता में गिरावट आई है।
पंजाब शिक्षा बोर्ड ने इसी चुनौती से निपटने के लिए अपने स्कूलों में निजीकरण किया था और उसके बाद जो हुआ, वो अविश्वसनीय था। 2020 में कुल 2 लाख 72 हजार 432 नए छात्र सरकारी स्कूल में दाखिला लिए। ह्यूमन रिसोर्स डिवेलपमेंट में पंजाब पूरे देश में दूसरे स्थान पर काबिज है। कुछ अनोखा या अद्वितीय बदलाव नहीं किया गया, पंचायत स्तर पर नोडल अधिकारी बैठाया गया, तथा स्कूलों के रखरखाव की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को दी गई। स्कूल में छात्रों के घटने पर स्कूल की जवाबदेही को तय किया गया।
भारत के शीर्ष नियोजन निकाय, नीति आयोग ने 2017 में जारी अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि Non-performing सरकारी स्कूलों को public-private partnership यानी पीपीपी मॉडल के तहत प्राइवेट प्लेयर को सौंप दिया जाना चाहिए। मतलब, थिंक टैंक चाहता था कि निजी क्षेत्र सरकारी स्कूल को गोद ले। थिंक टैंक ने यह भी नोट किया था, “प्रति स्कूल छात्रों की औसत संख्या 12.7 थी, जिस पर प्रति बच्चा औसत वार्षिक खर्च 80,000 रुपये था। इन स्कूलों के शिक्षकों का कुल (वार्षिक) वेतन बिल 2014-15 में 9,440 करोड़ रुपये था।
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जब नीति आयोग द्वारा सुझाई गई सिफारिशों को लागू करने की बात आती है तो मोदी सरकार अभी भी अपने विकल्पों पर विचार कर रही है। पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री, रमेश पोखरियाल निशंक ने पिछले साल लोकसभा में टिप्पणी की थी कि केंद्र की प्राथमिक शिक्षा का निजीकरण करने की कोई योजना नहीं है। हालाँकि, यह वही सरकार है जिसने अपनी नीतियों के केंद्र में ‘reform’ को रखा है, इसलिए उम्मीद है कि जल्द या बाद में इस पर कार्रवाई हो सकती है।
अगर निजीकरण करने के बाद ऐसे आंकड़े आते है तो यह संकेत है कि सरकारों को दूसरा रास्ता देखना होगा। शिक्षा का व्यापार हो चुका है। जरूरी है कि इस व्यापार को रोककर लोकहित व्यवस्था बनाई जाए। खैर नीति आयोग तो इस तरफ कदम उठाने के लिए तैयार दिख रहा है, देखना यह है कि वह ऐसे करने में सफल होती है या नहीं। बढ़िया शिक्षा, बढ़िया आधारभूत ढांचे, एडवांस स्तर की पढ़ाई और Extracurricular गतिविधि के लिए निजी क्षेत्र से हाथ मिलाना कहीं से भी बुरी बात नहीं है।