अगर कोई कीचड़ से सना हुआ आदमी आपके सामने आकर खड़ा हो जाए और आप उस पर एक लोटा पानी फेंक दे तो क्या होगा? जिस भाग में पानी का स्पर्श हुआ है वो थोड़ा सा साफ़ दिखेगा। नीतीश बाबू ने भी यही हथकंडा अपनाया। पानी फेंक तमाशा देख। पहले बिहार के विरोधाभास का इतिहास: सत्ता से लोहा लेना बिहारियों के खून में है। जब अंग्रेज़ अपनी शक्ति पर इठला रहे थे तब अस्सी बरस के वीर बाबू कुँवर सिंह ने यूनियन क्रॉस एक बार नहीं दो बार भूमि पर गिराया। १८५७ का विद्रोह तो सफल नहीं हो पाया लेकिन बिहारियों का विरोध प्रकट अवश्य हो गया। अंग्रेजों ने बिहारियों के पर कतरने में उसके बाद कोई कसर नहीं छोड़ी।
जब इंदिरा के नाम का डंका पूरे देश में बज रहा था, जयप्रकाश नारायण हुंकार भरने लगे। इंदिरा की हालत टाइट हो गयी। छात्र आंदोलन नाम का मंथन हुआ जिससे सज्जन और दुर्जन दोनों टाइप के नेता निकले। इंदिरा तो खैर वापस आ गयी लेकिन बिहार का पैकेज काटना प्रारम्भ हो गया। फिर अटल जी आए तब लालू “भाजप्पा को हराओ” का नारा लेकर पटना में कुंडली मार के बैठे थे। जब मनमोहन आए तो नीतीश कांग्रेस विरोध लेके फन तान दिए। मोदी जी आए तो नीतीश मोदीविरोधी हो गए और बिहार के ५-७ साल गड़प गए। आज कल हृदय परिवर्तन कर वह केंद्र के साथ हैं। कई बार अच्छे कारणों से तो कभी तिलमिलाहट में, कभी अकड़ में और कभी-कभी अत्यधिक महत्वकांक्षा में, केंद्रीय शक्ति से लोहा लेना हम बिहारी लोगों का फ़ेवरेट टाइम पास है।
अब आते हैं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में। चाराभक्षक लालू और उसकी धर्मपत्नी ने मिलकर बिहार को उस आदमी जैसा बना दिया जो कीचड़ में लोट-लोट के आया है। ऊपर से नीचे तक कीचड़ में सना। ऐसे में नयी आशा की किरण लेकर आए नीतीश बाबू और आते ही एक लोटा पानी फेंक दिया। मतलब लालू के गुंडों को जेल में डाल दिया और १२-१५ रोड बना दिए।
कीचड़ में सने आदमी का थोड़ा सा पार्ट चमकने लगा, बस क्या चमचों ने टैग दिया सुशासन का और नीतीश बाबू गर्व से पृष्ठभाग फुला कर घूमने लगे। नीतीश बाबू थे तो भाजपा के साथ लेकिन थे एक महान सेक्युलर। इसलिए इशरत जहाँ को अपनाने से लेकर टोपी पॉलिटिक्स करने तक नीतीश बहुत आगे रहे। इफ़्तार वग़ैरह भी चलता रहा। लुटएनस की लिबरल मीडिया को बहुत भाए इसलिए उन्हें “चेंजमेजर ओफ़ द ईयर” से लेकर “बेस्ट सी॰एम॰” तक सब घोषित कर दिए गया। पृष्ठभाग फुलावन की प्रक्रिया में एक छोटा सा काम छूट गया, बिहार का प्रशासन। लफुए अर्थात छोटे मोटे गुंडे बदमाश फिर से सक्रिय हुए। गोली वोली भी चलने लगी मतलब कालचक्र उलटा घूमने लगा।
प्रधानमंत्री बनने की लालसा में नीतीश बाबू को ये अच्छा नहीं लगा तो थोड़े और सेक्युलर हुए और स्टेट मीडिया को चायनीज़ कॉम्युनिस्ट पार्टी मॉडल पर रेग्युलेट करने लगे ताकि बिहार के बाहर सब अच्छा-अच्छा दिखे। चुनाव जीतते रहे काहे की बिहारी लोग ‘ललुआ से तो अच्छा ही हैं नीतिस्वा’ मोड में थे। मोदी जी के आने के बाद छन से जो टूटे कोई सपना वाली सच्चाई दिखी तो जीतन को अपना मनमोहन बना के बैठा दिए। पर जीतन मनमोहन न थे, वो खेला कर दिए। फिर दुनिया भर की थू-थू करके नीतीश जी फिर से आए। लालू का दामन पकड़े तो लालू पुत्र कुर्सी का पाया कुतरने लगे। फिर हर हर मोदी बोल के वापस एन॰डी॰ए॰ में आए और तब से यहीं है, लेकिन जब-जब पूर्वा बहती है, प्रधानमंत्री बनने का सपना किसी अधमुए सांप की तरह तड़पने लगता है।
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लूटएनस वाले दो-तीन लेख भी छाप देते हैं शायद सिर्फ़ फ़ील लेने के लिए। अब नीतीश ऐसा इक्वेशन बना के बैठे हैं कि जीते भाजपा या राजद, मुख्यमंत्री नीतीश जी ही बनते हैं। और बदलाव की आशा कम ही दिखती है। मैंने लगभग तीस साल का इतिहास कुछ पैरा में बता दिया, इसमें सुशासन तो छोड़ दीजिए, शासन तक नहीं दिखता है। दिखता है तो एक लोटा पानी जो नीतीश बाबू साल दर साल मार दिया करते हैं। बिहार शायद भारत की सबसे पुण्य भूमि है इसलिए लालू और नीतीश के रहते हुए भी अब तक है। भगवान चला रहे हैं शायद इसी आशा में कभी तो कोई आएगा जो काम पर ध्यान देगा। लालू के जैसे लूटने में और नीतीश के जैसे पर्सनालिटी कल्ट बनाने में नहीं लगा रहेगा।