राजनीति में जब एक नेता उठ खड़ा होता है तो साथ में कई विरोधी भी उठ खड़े होते हैं। देश के किसी भी राज्य को देखा जाए तो यह स्पष्ट दिखाई देता है। परंतु वास्तविक नेता वही होता है जो इस तरह की कठिन परिस्थितियों के बावजूद अपने नेतृत्व को बरकरार रखे और विरोधियों को चुप कराते हुए स्थिति को संभाल ले। आज जिस तरह से त्रिपुरा में राजनीतिक हालात बने और फिर जिस तरह से मुख्यमंत्री बिप्लब देब ने स्थिति को संभालते हुए विरोधी गुटों को कोई मौका नहीं दिया उससे एक बात तो स्पष्ट है कि त्रिपुरा को मौजूदा हालत में बिप्लब देब ही संभाल सकते हैं न कि गुटबाजी कर रहे TMC से आया कोई नेता।
दरअसल, हाल ही में मंगलवार को त्रिपुरा में बिप्लब कुमार देब ने अपना मंत्रिमंडल विस्तार करते हुए 3 मंत्रियों को कैबिनेट में शामिल किया।रामप्रसाद पॉल, सुशांत चौधरी और भगवान दास को पद और गोपनियता की शपथ दिलाई गयी। रामप्रसाद पॉल और सुशांत चौधरी पूर्व स्वास्थ्य मंत्री और TMC से आए सुदीप रॉय बर्मन के नेतृत्व वाले असंतुष्ट खेमे से हैं। उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल कर, बिप्लब ने उत्तर-पूर्वी राज्य में भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के सामने खड़ी हुई संकट को टालने के लिए एक स्मार्ट कदम उठाया है।
बता दें कि सुदीप रॉय बर्मन कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री समीर रंजन बर्मन के बेटे हैं और पहले कांग्रेस में थे। हालांकि TMC के मुकुल रॉय ने अपना प्रभाव दिखाते हुए सुदीप रॉय बर्मन को 2016 में बंगाल स्थित पार्टी (तृणमूल) में शामिल करवा लिया था। परंतु, जब वर्ष 2017 में मुकुल रॉय ने तृणमूल छोड़ भाजपा का हाथ थामा तो बर्मन को भी साथ BJP में लेते गए।
टीएमसी के भाजपा में आने के बाद भी सुदीप रॉय बर्मन की महात्कांक्षाएं कम नहीं हुई। सुदीप रॉय त्रिपुरा का मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। हालांकि, बिप्लब देब के मुख्यमंत्री के रूप में चुने जाने के साथ, सुदीप को मार्च 2018 में भाजपा-आईपीएफटी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री के पद के साथ संतोष करना पड़ा था। तभी से वह सरकार के अंदर से ही विरोध को हवा दे रहे थे। सुदीप कभी भी बिप्लब देब के अधीन काम नहीं कर सके और देब के खिलाफ असंतोष को हवा देने के लिए उन्होंने सुशांत चौधरी जैसे नेताओं को बिप्लब के खिलाफ खड़ा करना शुरू कर दिया था। उनकी पार्टी विरोधी गतिविधियों को देखते हुए बाद में उन्हें राज्य मंत्रिमंडल से हटा दिया गया था। अब जिन नेताओं के दम पर वो विरोध करना चाह रहे थे उन्हें ही मंत्रीमण्डल में शामिल कर लिया गया है।
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त्रिपुरा में 41 महीने पुराने बिप्लब कुमार देब मंत्रिमंडल का विस्तार इस सप्ताह की शुरुआत में तीन बागी विधायकों को शामिल करके किया गया था। इसके साथ ही उत्तर-पूर्वी राज्य में भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के सामने असंतुष्टों द्वारा संचालित संकट टल गया था, लेकिन अशुभ बादल अभी भी मंडरा रहे हैं। सुदीप रॉय के TMC और मुकुल रॉय से नज़दीकियों को देखते हुए बिप्लब देब को सावधान रहना होगा।
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राजनीति में महत्वाकांक्षाएं कभी पूर्ण नहीं होती इसी का कारण है कि राजनीतिक दल विभिन्न राज्यों में सत्ता बनाने के लिए कूच करते हुए अपना दांव चलते हैं। TMC प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसी जुगत में अब भाजपा शासित राज्य में अपना राज स्थापित करने के प्लान को अंजाम देने की तैयारी कर चुकी हैं तथा कोशिश कर रही हैं कि BJP किसी भी तरह से बिखर जाए।
हालांकि, बिप्लब देब की काट ममता के पास नहीं है। त्रिपुरा में आज के समय में सत्यता पर गौर करते हुए जमीनी पड़ताल की जाती है तो यह परिणाम सामने आता है कि गरीब और वंचित तबके से सभी वर्गों के मध्य देब की बेहद लोकप्रिय छवि और साझी पकड़ है। विद्रोही गुट के सुदीप बर्मन भले ही मुकुल रॉय की भांति अपने हेतु की प्राप्ति के लिए ममता का साथ छोड़ भाजपा में आए थे परंतु जब राज्य का स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद भी अपने हित को सिद्ध न कर पाए तो उन्हें बिप्लब से घृणा होने लगी और उनके नेतृत्व कौशल पर ही प्रश्न खड़े कर दिए जैसे कि मुकुल रॉय ने TMC में वापसी के बाद किया था।
यह सर्वविदित सत्य है कि बेहद कम समय में बिप्लब कुमार देब ने राज्य की जनता के उत्थान और दबे कुचले शोषित वर्ग की असल तकलीफ-परेशानी और व्यग्रता को पहचानते हुए अपने मंत्रिमंडल को उसके अनुरूप ही काम करने का निर्देश दिया। सुदीप का यह कहना है कि बिप्लब One Man Show चलाते हुए सरकार का संचालन कर रहे हैं। परंतु, बिप्लब का विभागों के प्रति एकाग्रचित समर्पण था जिसमें मुख्यमंत्री की सर्वोच्च प्राथमिकता स्वच्छता निहित सुशासन सुनिश्चित करना है और इसीलिए वह सभी मंत्रियों और नौकरशाहों के कामकाज पर नजर रखते हैं। वह किसी भी बेईमानी या भ्रष्ट आचरण की अनुमति नहीं देते हैं।
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अब यदि ममता के सपनों ने अधिक ज़ोर मार ही लिया है तो वो बिप्लब देब के खिलाफ चुनावी समर में उतरते ही यह भी समझ ही जाएंगी खेला होबे कहने से ही खेला नहीं हो जाता है। खूनी हिंसा और षडयंत्रों के बल पर हर ओर यदि चुनाव जीते जाते तो आज देश की दुर्गति हो गई होती।