अखिलेश और सपा- कैसे एक बिगड़ैल राजकुमार ने पार्टी की बैंड बाजा दी

पिछले दशक में उन्होंने न केवल 'नेताजी' की विरासत को नष्ट किया है बल्कि तीन दशक पुरानी पार्टी को ही मिट्टी में मिलाने का प्रबंध कर चुके हैं!

बाबू अखिलेश यादव

वंशवाद भारतीय राजनीति में पूर्णतः व्याप्त है। इस विष-वृक्ष से समय-समय पर विषबेल उत्पतीत होते रहते हैं। उत्तर प्रदेश के कालांतर में भी अखिलेश यादव के रूप में ऐसा हुआ। पूरे ठाट-बाट से JSS विज्ञान और प्रद्यौगिकी संस्थान से सिविल इंजीन्यरिंग से स्नातक किया और फिर कुछ नहीं कर पाये। अतः घर आते ही उन्होंने अपना बपौती पेशा अपना लिया। देश में बाप का पेशा अपनाने वाले बच्चों के सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे लेकिन, सिर्फ बाप के वजह से ही आप उस पेशे के शीर्ष पर पहुँच जाएँ ऐसे सिर्फ दो ही उदाहरण हैं। एक बाबू और एक पप्पू, यानी अखिलेश यादव और राहुल गांधी। बाबू अर्थात अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री पद पर बैठने की ऐसी ज़िद ठानी मानो लिविंग रूम में रखा हुआ सोफा हो।

पुत्रमोह में धृतराष्ट्र बने ‘अब्बाजान’ ने भी पुचकारते हुए बैठा दिया। बाबू बिना किसी प्रशासनिक और राजनीतिक अनुभव के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने। भारत की राजनीति ही जाति पर निर्भर है तथा जो भी जात और बिरादरी के पानी में जो मदिरा मिलाकर परोसेगा उसके आगे जनता नतमस्तक हो जाएगी। कुर्सी तो क्या सर पर भी बैठा लेगी। यही बाबू अखिलेश यादव के साथ भी हुआ। उन्हें अपने पिता मुलायम सिंह यादव की विरासत की बदौलत सीएम की सीट तो मिल गयी लेकिन 2012 के बाद से वह एक बड़ी विफलता के रूप में उभरे। पिछले दशक में उन्होंने न केवल ‘नेताजी’ की विरासत को नष्ट किया और तीन दशक पुरानी पार्टी को एक लोकल पार्टी बाना दिया, बल्कि शासन और नेतृत्व में विफल रहे।

पिछले कुछ वर्षों में कई दिग्गजों ने पार्टी छोड़ दी है, जिनमें चाचा शिवपाल यादव – जो जमीन पर कार्यकर्ताओं के साथ अपने उत्कृष्ट संबंध के लिए जाने जाते हैं – अब उन्होंने एक नई पार्टी बनाई है। नरेश अग्रवाल, जिन्होंने पार्टी के फंड को व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

हाहाकार तो तब मचा जब माननीय बाबू अखिलेश यादव जी ने अपने तुगलकी फरमान से पार्टी की लंका जलाने लगे। साक्षात भस्मासुर का रूप ले अपने अब्बाजान को भी झुलसाने लगे। पार्टी को दो भागों मे तोड़ा, कांग्रेस और बसपा तक से नाता जोड़ा लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा। पुत्र के कर्तव्य का ऐसा निर्वहन किया कि अब्बाजान को अभिभूत हो कहना पड़ा की हे कुलश्रेष्ठ अखिलेश! आपको इस पद पर आसीन करना मेरी सबसे बड़ी राजनीतिक मूर्खता है। खैर, आइये हम अखिलेश के अतीत के कुछ तुगलकी फरमान को जनता के परिपेक्ष्य में न देखकर पार्टी के परिपेक्ष्य में देखते हैं क्योंकि जनता का क्या है? जो बोया वही तो काटेगी।

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बाबू अखिलेश यादव के राजनीतिक पदार्पण के समय से ही उनकी अनुभवहीनता और अक्षमता झलकती है। मुख्यमंत्री बनते ही शालीनता और विनम्रता के जगह उनमे अहंकार का जन्म हुआ। सभी बड़े नेताओं को दरकिनार कर पार्टी पर निरंकुश आधिपत्य जमाया। सत्ता के लोभ में अपने पिता और चाचा तक से बगावत कर दी। अपने समर्थकों के ताकत के मद में चूर हो खुद पार्टी के सर्वे सर्वा बन बैठे। भ्रष्टाचार, जातीवाद और परिवारवाद की प्रतिमूर्ति कांग्रेस और बसपा से गठबंधन कर मुंह की खाई लेकिन, अक्ल फिर भी नहीं आई। लोकसभा हो या विधान सभा पार्टी का जनधार और सीटें दोनों कम हो गयी।

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खैर, उत्तर प्रदेश में 1 साल बाद चुनाव होने वाले हैं। अतः, बबुआ अपनी गलती सुधार कर ‘सबका साथ और सबका विश्वास’ के सहारे अपनी नैया पार लगाना चाहते हैं। तात्कालिक सुधार के मद्देनजर पिछले दिनों बाबू अखिलेश यादव ने नरेश अग्रवाल को सपा में वापसी का ऑफर दिया था। हरदोई में एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि नरेश अग्रवाल कह दें कि भाजपा में उनका अपमान हो रहा है तो उन्हें सपा में ले लेंगे। उनके इस बयान के सियासी मायने खोजे जा रहे थे लेकिन अब सभी अटकलों पर नरेश अग्रवाल की तरफ से विराम लगा दिया गया है। नरेश अग्रवाल ने अखिलेश यादव के पार्टी में वापसी के ऑफर ठुकराते हुए कहा कि मैं बीजेपी में था और बीजेपी में रहूंगा। सपा में वापसी की अटकलों पर विराम लगाते हुए उन्होंने कहा कि मेरे नेता मुलायम सिंह यादव हैं, अखिलेश यादव मेरे नेता नहीं हो सकते हैं। गौरतलब है कि नरेश अग्रवाल साल 2018 में समाजवादी पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए थे।

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इसी तरह अखिलेश ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए अपने चाचा शिवपाल की प्रगतिशील पार्टी से भी गठबंधन करना चाहते हैं। वैसे बता दूँ कि ये वही शिवपाल हैं जिन्होंने पहले अखिलेश को और बाद में अखिलेश ने इनको पार्टी से निकाला था। अब ये चोर-चोर मौसेरे भाई वापिस साथ आ रहें हैं। इस घटना के बारे में सोचकर लगता है कि जनता को मूर्ख बनाना कितना आसान है। जनता को मूर्ख बना कर पहले अलग हुए और फिर साथ आकर साथ में बेवकूफ़ बनाएँगे। जनता तो मानो जैसे इसे भारत मिलाप की तरह देखने को आतुर है। वैसे भी जोड़-तोड़ की राजनीति तो चलती रहेगी और जनता का क्या है। इन्हें शासन करने का लोभ है और मूर्ख जनता को शासित होने का।

हालांकि 2017 के बाद से सपपा को प्रदेश के लगभग सभी चुनावों में हार ही मिली है। बाबू अखिलेश यादव ने चुनाव जीतने के लिए भाजपा पर बल प्रयोग करने का आरोप लगाया, जैसे कांग्रेस नेता हर चुनाव हार के बाद ईवीएम को दोष देते हैं। यदि अखिलेश यादव इसी तरह आत्मसंतुष्ट रहते हैं और अपनी असफलताओं का दोषारोपण अन्य के माथे पर मढ़ते रहे तो वह अगले कुछ वर्षों में समाजवादी पार्टी को ‘इतिहास’ बना देंगे।

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