सुब्रमण्यम स्वामी का यह बौद्धिक पतन बेहद दुखदायी है

सुब्रमण्यम स्वामी का व्यवहार उनके समर्थकों को ही दुखी कर रहा है, जिनमें से हम भी एक हैं

सुब्रमण्यम स्वामी

PC: Webdunia

सुब्रमण्यम स्वामी को लोग उनके व्यक्तित्व के कारण पहचानते हैं। स्वामी का व्यक्तित्व किसी राजनीतिक दल की परिधि में बंधा हुआ नहीं है। हिंदुत्व और भारत के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयास ना केवल सराहनीय है, बल्कि अपने आप में एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। लेकिन महत्वाकांक्षा संभवतः व्यक्ति की सबसे बड़ी शत्रु बन जाती है और महत्वाकांक्षा ही किसी के पतन का कारण भी बन सकती है। ‘मैं श्रेष्ठ हूं’,  और ‘मैं सर्वश्रेष्ठ हूं’, इन दोनों के बीच नाम मात्र की सीमा रेखा होती है और व्यक्ति उस लक्ष्मण रेखा को कब पार कर जाता है उसे पता भी नहीं चलता। सुब्रमण्यम स्वामी की वित्त मंत्री बनने की महत्वाकांक्षा उनके लिए ऐसी परिस्थितियां पैदा कर रही हैं, जिसके कारण उनके समर्थक और उन्हें आदर्श मानने वाले लोगों की संख्या बहुत तेजी से कम हो रही है।

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यह एक सर्वविदित तथ्य है कि सुब्रमण्यम स्वामी देश के विद्वान अर्थशास्त्रियों में से एक हैं। किसी समय सांख्यिकी विषय में विश्व के सबसे अच्छे शिक्षकों में से एक रहे स्वामी कानून, कूटनीति, विदेश नीति से लेकर कई अन्य क्षेत्रों में भी मजबूत पकड़ रखते हैं। विशेष रूप से कांग्रेस के विरुद्ध सुब्रमण्यम स्वामी लगातार हमलावर रहे हैं। चाहे वो सोनिया गांधी के पूर्व जीवन पर खुलकर बोलना हो, या राहुल गांधी की नागरिकता को लेकर सवाल उठाना हो, स्वामी ने हर मुद्दे पर मुखर होकर अपनी बात रखी है। रामसेतु को राष्ट्रीय स्मारक की पहचान सुब्रमण्यम स्वामी के प्रयासों से ही मिल सकी। स्वामी ने चिदंबरम को जेल भिजवाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

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ऐसे ही अन्य कई कारनामों के कारण स्वामी राष्ट्रवादी धड़ों के सबसे लोकप्रिय व्यक्तियों में से एक हैं, लेकिन सुब्रमण्यम स्वामी की मंत्री बनने की अभिलाषा उनकी छवि धूमिल कर रही है। मोदी सरकार द्वारा उनकी उम्र के कारण उन्हें कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया गया, शायद स्वामी ने इसे अपना अपमान समझ लिया।

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स्वामी का वित्त मंत्रालय के प्रति प्रेम कोई नया नहीं है। भारत रत्न स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जब दूसरी बार प्रधानमंत्री बने थे तो सुब्रमण्यम स्वामी ने वित्त मंत्री बनने की इच्छा व्यक्त की थी। पत्रकार विजय त्रिवेदी ने वाजपेयी के ऊपर लिखी अपनी पुस्तक में बताया है कि वाजपेयी ने 1996 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर स्वामी के स्थान पर यशवंत सिन्हा को वित्त मंत्री बना दिया था। वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री बनने की हसरत पूरी ना होने के कारण स्वामी भाजपा और आरएसएस से इतना चिढ़ गए थे कि उसे फासिस्ट करार दे दिया था। उन्होंने आरएसएस के विस्तार को अंग्रेजी साम्राज्यवाद और इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से भी बुरा बताया था।

इसके बाद सुब्रमण्यम स्वामी ने भाजपा और AIADMK के बीच पनप रहे विवादों को हवा दी। फिर उन्होंने जयललिता को प्रधानमंत्री बनाने का सपना दिखाया और सोनिया गांधी के साथ उनकी मुलाकात करवाई। अंततः स्वामी के प्रयासों से जयललिता ने वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन खींच लिया और 13 महीने में सरकार गिर गई

मोदी सरकार बनने के बाद सुब्रमण्यम स्वामी को भाजपा की ओर राज्यसभा की सदस्यता दी गई। लेकिन स्वामी की महत्वकांक्षी वित्त मंत्री बनने की थी। यही कारण था कि स्वामी अरुण जेटली पर लगातार हमलावर रहे और जेटली के बाद जब वित्त मंत्रालय का कार्यभार निर्मला सीतारमण को दे दिया गया तो उसके बाद स्वामी ने पीछे पलट कर नहीं देखा, बहुत दिनों दिन भाजपा के प्रति और अधिक हमलावर होते गए।

समस्या यह है कि जो व्यक्ति अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण मोदी सरकार से संतुष्ट होता है वह अंततोगत्वा राजनीतिक पतन को प्राप्त होता है। शत्रुघ्न सिन्हा, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी मंत्रालय न मिलने के कारण बगावत करने वाले पहले नेताओं में शामिल थे। उनके बाद नवजोत सिंह सिद्धू ने भी इसी कारण भाजपा से मुंह मोड़ लिया। हाल ही में मुकुल रॉय और बाबुल सुप्रियो का नाम इस सूची में जुड़ गया, किंतु सुब्रमण्यम स्वामी का नाम यदि सूची में जुड़ता है तो यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

ऐसा अक्सर देखा गया है कि प्रधानमंत्री मोदी से असंतुष्ट व्यक्ति पहले एक दुखी व्यक्ति की छवि बनाता है, फिर उसकी छवि बगावती नेता की होती है, जो शुरू में केवल मोदी विरोध करता है,लेकिन धीरे-धीरे वह भाजपा विरोधी बन जाता है, इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए अंततोगत्वा धर्म और राष्ट्र का विरोधी बन जाता है।

सुब्रमण्यम स्वामी का व्यवहार उनके समर्थकों को ही दुखी कर रहा है, जिनमें से हम भी एक हैं। स्वामी ने सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की यह तो उचित था, लेकिन जिस प्रकार उन्होंने चीन से संघर्ष के समय सरकार की नीति की आलोचना की उसे देख कर ऐसा लगा जैसे सुब्रमण्यम स्वामी की नकारात्मकता उन्हें सही और गलत के बीच भेद नहीं करने दे रही।

हाल ही में जब प्रधानमंत्री अमेरिका दौरे पर गए थे और उन्होंने अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से मुलाकात के बाद ट्विटर पर इसकी जानकारी दी थी तब सुब्रमण्यम स्वामी ने इसे मुद्दा बना लिया था। ऐसा इसलिए क्योंकि तब तक अमेरिकी उपराष्ट्रपति के ट्विटर हैंडल पर इस मुलाकात के संदर्भ में कोई ट्वीट नहीं किया गया था। स्वामी ने इसे मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री मोदी को अपमानित करना शुरू कर दिया हालांकि, स्वामी यह भूल गए कि प्रधानमंत्री एक व्यक्ति नहीं एक पद है। स्वामी एक व्यक्ति नरेंद्र मोदी को अपमानित करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री और भारत का अपमान कर गये और शायद उन्हें इसका भान नहीं रहा।

हालांकि, कमला हैरिस के ट्विटर अकाउंट से थोड़े ही समय बाद इस मीटिंग के संदर्भ में जानकारी दे दी गई। इसके बाद मोदी समर्थकों द्वारा सुब्रमण्यम स्वामी को ट्रोल किया जाने लगा जो वास्तव में हमें भी दुखी कर रहा था कि जो सुब्रमण्यम स्वामी कभी सभी हिंदू वर्ग के लिए बेहद महत्वपूर्ण नेता थे वो आज उसी वर्ग द्वारा ट्रोल किये जा गये।

 

कभी सुब्रमण्यम स्वामी पश्चिम बंगाल में निर्दोष हिंदुओं को मार रहे तृणमूल कार्यकर्ताओं को और ममता बनर्जी को क्लीन चिट देते हैं तो कभी तमिलनाडु की ऐसी राजनीतिक पार्टी को समर्थन की बात करते हैं जो जिहादी मानसिकता वाले संगठनों के साथ जुड़कर काम कर रही है। यदि ऐसा ही लगातार होता रहा तो इससे सुब्रमण्यम स्वामी की छवि को बहुत नुकसान पहुंचेगा।

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